गुजरात हाई कोर्ट ने आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में ‘कानून के साथ संघर्ष में’ (Child in Conflict with Law) आए एक बच्चे को जमानत दे दी है। कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए कहा कि इस मामले में बच्चे की प्रत्यक्ष संलिप्तता नहीं थी जिसे अपराधी मंशा के रूप में देखा जा सके। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर बच्चे को हिरासत में रखा गया तो इसका मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और उसके विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
यह मामला ‘जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट, 2015’ की धारा 102 के तहत दायर एक पुनरीक्षण आवेदन से जुड़ा था, जिसे बच्चे की मां ने उसके संरक्षक के रूप में दाखिल किया था। इस आवेदन में उन आदेशों को चुनौती दी गई थी जिनमें बच्चे की जमानत याचिका को खारिज कर दिया गया था।
यह मामला ‘भारतीय न्याय संहिता, 2023’ की धारा 108, 115(2), 308(5) और 54 के तहत दंडनीय अपराधों से संबंधित था।
गुजरात हाई कोर्ट: कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे की हिरासत से उसके मानसिक और भावनात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा
जस्टिस गीता गोपी की पीठ ने कहा, “कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे (CCL) की प्रत्यक्ष संलिप्तता को आपराधिक जिम्मेदारी के रूप में नहीं माना जा सकता है। इसके अलावा, CCL की हिरासत में रहने से उसका मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास प्रभावित होगा और उसकी वृद्धि में बाधा उत्पन्न होगी।”
इस मामले में अपीलकर्ता की ओर से एडवोकेट पी.पी. मजूमदार ने पैरवी की, जबकि उत्तरदाता की ओर से एपीपी क्रीना पी.कल्ला उपस्थित थीं।
एफआईआर में उल्लेख किया गया था कि आरोपी नंबर 1, विशाल जाडेजा दरबार, जो कि वी.एम. मेटल्स से जुड़े थे, को मृतक से कुछ राशि वसूलनी थी। इसके लिए उन्होंने जबरदस्ती और धमकी के तहत मृतक से एक नोट लिखवाया। इस जबरदस्ती और अत्याचारी मांग के कारण मृतक अशोकभाई, उनकी पत्नी लीलूबेन, पुत्र जिग्नेश और बेटी किंजल ने आत्महत्या कर ली।
गुजरात हाई कोर्ट: बच्चे की हिरासत से मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव की संभावना
गुजरात हाई कोर्ट ने एक मामले में कानून के साथ संघर्ष में आए बच्चे (CCL) को जमानत दी, जिसमें आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था। कोर्ट ने पाया कि बच्चे की सीधी संलिप्तता नहीं थी, जिससे उसे अपराधी ठहराया जा सके। कोर्ट ने कहा कि बच्चे की हिरासत में रहने से उसके मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
जस्टिस गीता गोपी की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह भी कहा कि निचली अदालतों ने प्रोबेशन अधिकारी की रिपोर्ट का आह्वान नहीं किया और यह जांच नहीं की कि क्या बच्चे को नैतिक, शारीरिक या मानसिक खतरे का सामना करना पड़ सकता है। अभियोजन पक्ष का यह दावा नहीं था कि बच्चे ने मृतक को पीटा था; बल्कि बच्चे पर आरोप था कि उसने घटना की वीडियो रिकॉर्डिंग की थी।
कोर्ट ने भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 54 का अवलोकन किया, जो यह मानता है कि यदि कोई व्यक्ति घटना के समय वहां मौजूद है, तो उसे उकसाने के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
लेकिन कोर्ट ने कहा कि बच्चे ने ऐसा कोई अपराध नहीं किया। कोर्ट ने निचली अदालतों के आदेशों को रद्द करते हुए कहा कि मनोवैज्ञानिक की रिपोर्ट का आह्वान किया जाना चाहिए था, ताकि यह जांचा जा सके कि क्या बच्चे की उपस्थिति जानबूझकर थी और क्या उस पर धारा 54 लागू होती है। इसके आधार पर कोर्ट ने जमानत याचिका को मंजूर कर लिया।