भारत-तुर्की संबंधों की दरार: भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर की पहल और DGMO स्तर की बातचीत की संभावनाओं के बीच तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोगन का एक बयान सामने आया, जिसमें उन्होंने पाकिस्तानियों को “भाई” बताया और उनके लिए दुआ की।
यह बयान यूं तो कूटनीतिक भाषणों की तरह लग सकता है, लेकिन भारत-तुर्की संबंधों के परिप्रेक्ष्य में यह एक लंबी ऐतिहासिक और रणनीतिक दरार की पुष्टि करता है।
भारत-तुर्की संबंधों की दरार: गुलान मूवमेंट से शुरू हुई तुर्की की नाराजगी
2016-17 में तुर्की में असफल तख्तापलट के प्रयास के बाद राष्ट्रपति एर्दोगन ने अमेरिका स्थित फेतुल्लाह गुलान के संगठन को दोषी ठहराया। उन्होंने भारत समेत कई देशों से गुलान समर्थित स्कूलों और संगठनों को बंद करने की मांग की थी। भारत ने इस अपील को तवज्जो नहीं दी, जिससे एर्दोगन निराश हुए और इसके बाद से उन्होंने भारत के खिलाफ मुखर रुख अपनाना शुरू कर दिया। खासतौर से कश्मीर मुद्दे पर वह बार-बार पाकिस्तान का समर्थन करते दिखे।
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इतिहास में गहरी जड़ें
तुर्की और भारत के बीच संबंधों की खटास की जड़ें इतिहास में भी गहराई से धंसी हैं। दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 में तुर्क मूल के शासकों द्वारा की गई थी। गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश और सैयद वंश — सभी तुर्की मूल के थे। बाबर, जो मुगल साम्राज्य का संस्थापक था, मूल रूप से एक तुर्क-उज़बेक था और उसकी आत्मकथा ‘तुजुके बाबरी’ तुर्की भाषा में थी।
सैयद सालार मसूद जैसे आक्रमणकारी भी तुर्क मूल के थे, जिन्हें भारत में इस्लाम फैलाने के लिए भेजा गया था। 1034 में राजा सुहेलदेव ने उन्हें बहराइच में हराया और मार डाला। इतिहास में यह तुर्की-भारतीय टकराव की शुरुआती मिसालों में गिना जाता है।
आधुनिक युग में रिश्तों का बदलता स्वरूप
भारत और तुर्की के बीच आधिकारिक राजनयिक संबंध 1948 में स्थापित हुए थे। लेकिन शीतयुद्ध के दौर में तुर्की अमेरिका के साथ जुड़ गया और भारत ने रूस और गुटनिरपेक्षता का मार्ग अपनाया। इससे दोनों देशों के रिश्ते धीरे-धीरे दूर होते चले गए। पाकिस्तान अमेरिका का नजदीकी सहयोगी बना और तुर्की भी उसके साथ खड़ा हो गया।
तुर्की द्वारा बार-बार भारत विरोधी रुख अपनाने की एक वजह यह भी है कि वह खुद को मुस्लिम दुनिया का नेता सिद्ध करना चाहता है। एर्दोगन गाजा, कतर, सीरिया और मुस्लिम मानवाधिकार जैसे मुद्दों पर खुलकर बयान देते हैं और अपनी छवि एक इस्लामी नेतृत्वकर्ता के रूप में गढ़ना चाहते हैं।
कूटनीति में कटुता के कारण
भारत-तुर्की संबंधों में कई मोर्चों पर मतभेद हैं:
- कश्मीर मुद्दा: एर्दोगन लगातार कश्मीर पर पाकिस्तान का पक्ष लेते रहे हैं, जिससे भारत को आपत्ति है।
- परमाणु आपूर्ति समूह (NSG): तुर्की भारत के NSG में प्रवेश के विरोधियों में से एक रहा है।
- थोरियम तकनीक: तुर्की भारत से थोरियम आधारित न्यूक्लियर तकनीक लेना चाहता था, लेकिन भारत ने साफ इनकार कर दिया।
- व्यापार असंतुलन: भारत तुर्की को अधिक निर्यात करता है, जबकि आयात कम करता है। तुर्की चाहता है कि यह असंतुलन दूर हो।
- भारत की बदलती विदेश नीति: भारत की सऊदी अरब, यूएई, इजरायल और अमेरिका से बढ़ती नजदीकी तुर्की को रास नहीं आती।
दो बार एर्दोगन की भारत यात्रा भी रही विफल
राष्ट्रपति एर्दोगन 2017 और 2018 में भारत आए थे। उन्होंने भारत के साथ आर्थिक, परमाणु ऊर्जा और राजनीतिक संबंध मजबूत करने की कोशिश की, लेकिन भारत के सतर्क और आत्मनिर्भर रवैये ने उन्हें निराश किया। उनके प्रस्तावों को भारत ने स्वीकार नहीं किया, खासतौर से थोरियम आधारित न्यूक्लियर तकनीक देने से इनकार कर दिया गया। इसके बाद एर्दोगन ने मान लिया कि भारत के साथ गहरे रिश्तों की संभावना कम है।
धार्मिक और भाषाई जुड़ाव के बावजूद दूरी
हिंदी और तुर्की में 9,000 से अधिक शब्द एक जैसे हैं। भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने 1912 के बाल्कन युद्धों में तुर्की की सहायता की थी और 1920 के दशक में उनके स्वतंत्रता संग्राम में भी समर्थन दिया था। महात्मा गांधी ने भी प्रथम विश्व युद्ध के बाद तुर्की पर हुए अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई थी। लेकिन आज वही तुर्की भारत के खिलाफ सुर में सुर मिलाता नजर आता है।
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एर्दोगन की महत्वाकांक्षा और भारत से दूरी
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन इस्लामी दुनिया में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश में भारत जैसे उभरते शक्ति के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। हागिया सोफिया को मस्जिद में बदलना, मुस्लिम देशों के लिए मानवाधिकारों की बात करना और पाकिस्तान के साथ गहरे संबंध बनाना — यह सब एर्दोगन की रणनीति का हिस्सा हैं। वह खुद को मुस्लिम देशों का चैंपियन बनाकर तुर्की को एक वैश्विक ताकत बनाना चाहते हैं।
भारत की स्वतंत्र विदेश नीति और वैश्विक संतुलन
भारत और तुर्की के बीच संबंधों में कड़वाहट केवल हालिया घटनाओं का नतीजा नहीं है, बल्कि यह ऐतिहासिक, कूटनीतिक और रणनीतिक स्तरों पर लंबे समय से पनप रही है। एर्दोगन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और भारत की स्वतंत्र विदेश नीति के चलते दोनों देशों के बीच खाई और गहरी होती चली गई है। आने वाले समय में यह देखना होगा कि क्या यह दूरी पाटी जा सकती है या यह विरोध आगे और तीखा रूप लेगा।