महाराष्ट्र में चुनावी संग्राम: महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर गरमा गई है, क्योंकि शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे गुट), जिसे आमतौर पर शिवसेना (यूबीटी) कहा जाता है, ने सुप्रीम कोर्ट में भारतीय चुनाव आयोग (ECI) के एक फैसले को चुनौती देते हुए तत्काल सुनवाई की मांग की है।
मामला शिवसेना के पारंपरिक चुनाव चिन्ह “धनुष और बाण” को लेकर है, जिसे चुनाव आयोग ने फरवरी 2023 में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट को सौंप दिया था।
इस पूरे प्रकरण का संदर्भ उस राजनीतिक संकट से जुड़ा है, जिसमें शिवसेना के भीतर विभाजन हुआ और एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में एक बड़ा समूह पार्टी से अलग हो गया। चुनाव आयोग ने इसके बाद पार्टी और उसके चुनाव चिन्ह को शिंदे गुट को सौंप दिया था। हालांकि उद्धव ठाकरे गुट ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और अब जबकि महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनावों की घोषणा हो चुकी है, शिवसेना (यूबीटी) चाहती है कि यह याचिका तत्काल सुनी जाए ताकि चुनाव चिन्ह विवाद का समाधान हो सके।
महाराष्ट्र में चुनावी संग्राम: एनसीपी मामले जैसी अंतरिम राहत की मांग
शीर्ष अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ के समक्ष इस मामले को उठाया। उन्होंने कहा कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव कराने का आदेश दिया है, ऐसे में याचिका पर तत्काल सुनवाई जरूरी है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि चुनाव आयोग का निर्णय केवल विधायी बहुमत के आधार पर लिया गया है, जो कि 2023 में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ के फैसले के खिलाफ है। उस फैसले में कहा गया था कि पार्टी की असल पहचान का निर्धारण केवल विधायी बहुमत से नहीं किया जा सकता।
कपिल सिब्बल ने यह दलील दी कि जिस तरह एनसीपी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम राहत दी थी, उसी तरह इस मामले में भी राहत दी जानी चाहिए ताकि शिवसेना (यूबीटी) को नुकसान न हो। उन्होंने कहा कि शिवसेना के पारंपरिक चुनाव चिन्ह पर शिंदे गुट को अधिकार देने से लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रभावित हो रही है और यह न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
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चुनाव चिन्ह बनाम प्रत्याशी की व्यक्तिगत पहचान
जस्टिस सूर्यकांत ने मामले की गंभीरता को स्वीकारते हुए कहा कि छुट्टियों से पहले सुनवाई करना संभव नहीं हो सकता, लेकिन अगर यह अत्यंत जरूरी हुआ, तो इसे अवकाशकालीन पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि शिवसेना (यूबीटी) के पास भी अब एक चुनाव चिन्ह है, ऐसे में वे उस चिन्ह के साथ चुनाव क्यों नहीं लड़ सकते। इस पर सिब्बल ने जवाब दिया कि मूल चुनाव चिन्ह का प्रतीकात्मक महत्व बहुत बड़ा है और मतदाताओं के लिए यह पहचान का विषय है।
बहस के दौरान यह भी उभरा कि स्थानीय निकाय चुनावों में अक्सर मतदाता उम्मीदवारों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं और चुनाव चिन्ह की भूमिका अपेक्षाकृत सीमित होती है। लेकिन सिब्बल ने दोहराया कि संवैधानिक मूल्य और सुप्रीम कोर्ट का पूर्ववर्ती निर्णय इस मामले में पूरी तरह लागू होता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका तर्क पूरी तरह संविधान पीठ के फैसले पर आधारित है और उसी का पालन किया जाना चाहिए।
मामले का कानूनी पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को तय करना होगा कि क्या चुनाव आयोग द्वारा पार्टी और चिन्ह की मान्यता केवल विधायी बहुमत के आधार पर दी जा सकती है या अन्य कारकों को भी ध्यान में रखना होगा। यदि शीर्ष अदालत इस याचिका पर सुनवाई के लिए सहमत हो जाती है, तो यह भारतीय राजनीति और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर एक अहम उदाहरण बन सकता है।
पार्टी की असल मान्यता के मानदंड क्या हों?
मामले का शीर्षक “सुनील प्रभु बनाम एकनाथ शिंदे और अन्य” है, जो विशेष अनुमति याचिका (सिविल) संख्या 1644-1662/2024 के तहत दर्ज किया गया है। यह याचिका उस पृष्ठभूमि में दायर की गई है, जब शिवसेना के विभाजन के बाद एक गुट (यूबीटी) ने चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती दी थी और यह मांग की थी कि उन्हें ही असली शिवसेना माना जाए।
nishikant dubey on supreme court
सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका न केवल शिवसेना (यूबीटी) के राजनीतिक भविष्य को प्रभावित करेगी, बल्कि यह भी तय करेगी कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में पार्टी की असल पहचान कैसे निर्धारित की जाएगी – क्या केवल विधायी बहुमत ही इसका मानदंड होगा या संगठनात्मक ढांचा, कार्यकर्ता समर्थन और इतिहास भी इसमें शामिल होंगे।
महाराष्ट्र में चुनाव चिन्ह विवाद का होगा निर्णायक असर
जैसे-जैसे महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव नजदीक आ रहे हैं, यह मामला और अधिक संवेदनशील होता जा रहा है। यदि शिवसेना (यूबीटी) को चुनाव चिन्ह वापस नहीं मिलता, तो उन्हें चुनाव में पहचान की समस्या का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, शिंदे गुट चुनाव चिन्ह के साथ राजनीतिक बढ़त लेने की स्थिति में है।
सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई की तारीख और उस पर लिया गया रुख इस पूरी राजनीतिक लड़ाई की दिशा तय करेगा।
फिलहाल सभी की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं कि क्या वह इस संवेदनशील याचिका को गर्मी की छुट्टियों के दौरान सूचीबद्ध करेगा और क्या उद्धव ठाकरे गुट को अपनी पहचान की लड़ाई में कोई राहत मिलेगी।