इलाहाबाद हाईकोर्ट: भारत की न्यायिक प्रणाली पर अक्सर देरी और लंबी अदालती प्रक्रियाओं के लिए आलोचना होती रही है।
परंतु इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में एक सख्त और स्पष्ट टिप्पणी करते हुए कहा है कि इस न्यायिक देरी के लिए केवल अदालतें जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि मुकदमेबाज (वादकारी) भी इसके लिए उतने ही दोषी हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट: वादियों की वजह से बढ़ रही न्यायिक देरी
जस्टिस जेजे मुनीर की एकल पीठ ने पिछले सप्ताह एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान कहा कि न्यायिक देरी में मुकदमेबाजों की भूमिका एक ऐसे खतरे के रूप में उभर रही है, जिसके बारे में न तो बात की जाती है और न ही उसकी सार्वजनिक निंदा की जाती है। अदालत ने यह भी कहा कि वादी वर्ग, चाहे वह आम नागरिक हो या कोई सरकारी अधिकारी, अदालत में उपस्थित होने पर अक्सर स्थगन की मांग करता है और इस प्रक्रिया से आनंद लेता है, जो न्याय की प्रक्रिया को धीमा करता है।
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आजमगढ़ के तालाब पर निजी अतिक्रमण
यह टिप्पणी एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की गई, जिसमें आरोप था कि उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के ग्राम बेन्दुई में स्थित एक तालाब पर निजी व्यक्तियों (प्रतिवादी संख्या 5 से 8) द्वारा अतिक्रमण कर लिया गया है। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि तालाब, जो सार्वजनिक संपत्ति है, पर अतिक्रमण होने के बावजूद प्रशासन द्वारा कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गई।
प्रशासनिक उदासीनता पर न्यायालय की नाराजगी
कोर्ट ने यह भी नोट किया कि उत्तर प्रदेश राजस्व संहिता, 2006 की धारा 67 के अंतर्गत तहसीलदार बुढ़नपुर ने अतिक्रमण हटाने (बेदखली) का आदेश तो पारित कर दिया था, परंतु उस आदेश का पालन अब तक नहीं किया गया। 10 अप्रैल को अदालत ने तहसीलदार से इस मामले में रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। इसके जवाब में तहसीलदार ने स्थगन की मांग करते हुए मुख्य स्थायी अधिवक्ता को एक पत्र लिखा, जिसमें सीएससी के माध्यम से रिपोर्ट दाखिल करने के लिए अतिरिक्त समय मांगा गया। इसी पृष्ठभूमि में कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए स्थगन की प्रवृत्ति को न्यायिक देरी की प्रमुख वजह बताया।
स्थगन संस्कृति की आलोचना
न्यायालय ने लिखा: “यह आश्चर्यजनक है कि अदालतों में देरी के खिलाफ इतने व्यापक विरोध के बावजूद, देश के नागरिक, चाहे वे किसी भी स्थिति में हों, जब वे वादी के रूप में अदालत में पेश होते हैं, तो समय मांगना और अपने उद्देश्य के अनुकूल स्थगन का आनंद लेना पसंद करते हैं। अदालत में देरी में वादी जनता का योगदान, जो वास्तव में एक खतरा है, के बारे में न तो बात की जाती है और न ही उसकी निंदा की जाती है। किसी भी मामले में, इस प्रवृत्ति को दृढ़ता से हतोत्साहित किया जाना चाहिए।”
nishikant dubey on supreme court
तहसीलदार को चेतावनी
कोर्ट ने प्रार्थना को खारिज करते हुए तहसीलदार को चेतावनी दी कि वह तीन दिनों के भीतर हलफनामा दाखिल करें, अन्यथा उन्हें 30 अप्रैल को अगली सुनवाई में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना होगा। यह आदेश एक स्पष्ट संदेश के रूप में देखा जा रहा है कि अदालत अब अनावश्यक स्थगन की प्रवृत्ति को बर्दाश्त नहीं करेगी।
स्थगन के दुरुपयोग का राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य
इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि अदालतें अब स्थगन के दुरुपयोग के प्रति और अधिक संवेदनशील हो गई हैं। वर्षों से यह देखा गया है कि मुकदमों में जानबूझकर देरी करने की प्रवृत्ति अपनाई जाती है, ताकि न्यायिक प्रक्रिया को लंबा खींचा जा सके। यह प्रवृत्ति न केवल न्याय को विलंबित करती है, बल्कि जनता के बीच न्यायपालिका की साख को भी प्रभावित करती है।
सोशल मीडिया पर आलोचना अदालत में विरोध
इस वर्ष की शुरुआत में, इसी न्यायाधीश की पीठ ने एक अन्य मामले में एक वादी को फटकार लगाई थी, जिसने यूपी चकबंदी अधिनियम, 1953 के तहत एक मामले में त्वरित कार्यवाही के खिलाफ अदालत का रुख किया था। अदालत ने उस समय भी टिप्पणी की थी कि यह विडंबना है कि आम जनता सोशल मीडिया और अन्य मंचों पर अदालती कार्यवाही की धीमी गति और बार-बार स्थगन के लिए न्यायपालिका की आलोचना करती है, लेकिन जब वही व्यक्ति वादी बनता है, तो तेज़ कार्यवाही के विरुद्ध अपील करता है।
कोर्ट की चेतावनी को गंभीरता से लेने का समय
इलाहाबाद हाईकोर्ट की यह टिप्पणी भारतीय न्यायिक प्रणाली के भीतर एक गहरे और पुराने संकट की ओर इशारा करती है। जब तक वादी स्वयं इस जिम्मेदारी को नहीं समझेंगे कि उन्हें भी न्यायिक प्रक्रिया को सहयोग देना है, तब तक न्याय में देरी की समस्या का समाधान मुश्किल होगा। अदालतों को चाहिए कि वे ऐसे मामलों में सख्ती से पेश आएं और बार-बार स्थगन की मांग करने वालों पर जुर्माना लगाने जैसे कदम उठाएं। न्याय तभी प्रभावी हो सकता है जब वह समय पर मिले — और इसके लिए वादियों को भी अपनी भूमिका का आत्मनिरीक्षण करना होगा।