ALLAHABAD HC: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में 2004 में नाबालिग लड़के और लड़की के बीच संपन्न विवाह को ‘अमान्य’ करार दिया है। यह फैसला उस अपील पर आधारित था, जिसमें पति ने फैमिली कोर्ट के उस निर्णय को चुनौती दी थी, जिसने उनके विवाह को अमान्य घोषित करने की याचिका को खारिज कर दिया था।
न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति डोनाडी रमेश की खंडपीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि बाल विवाह को अमान्य घोषित करने के लिए अन्य किसी तथ्य को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। यदि विवाह के समय दोनों पक्षों की उम्र नाबालिग की श्रेणी में आती है, तो वह विवाह स्वतः ही बाल विवाह निषेध अधिनियम (PCMA) के तहत अमान्य होता है।
इस मामले में याचिकाकर्ता पति का जन्म 1992 में और पत्नी का जन्म 1995 में हुआ था। जब उनका विवाह 2004 में संपन्न हुआ था, तब पति की उम्र लगभग 12 वर्ष और पत्नी की उम्र 9 वर्ष थी। 2013 में पति ने बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (PCMA) के तहत धारा 3 का लाभ उठाते हुए विवाह को अमान्य घोषित करने के लिए मुकदमा दायर किया।
उनका दावा था कि यह याचिका समय सीमा के भीतर दायर की गई है, जैसा कि PCMA की धारा 3(3) के अंतर्गत निर्धारित है।
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ALLAHABAD HC: अदालत का विचार और तर्क
फैमिली कोर्ट ने विवाह को ‘बाल विवाह’ तो मान लिया था, लेकिन पति की याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया कि उसने 18 वर्ष की आयु पूरी करने के बाद दो वर्षों के भीतर यह याचिका नहीं दायर की थी, जो कि अधिनियम के अनुसार समय सीमा का उल्लंघन है। इसके चलते, पति ने फैमिली कोर्ट के निर्णय के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में पाया कि मुकदमा समय सीमा के भीतर दायर किया गया था, और इस प्रकार इसे बनाए रखा जाना चाहिए।
खंडपीठ ने कहा कि यह सिद्ध हो चुका है कि विवाह के समय दोनों ही पक्ष नाबालिग थे। इसलिए, यह विवाह बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत ‘अमान्य’ है। कोर्ट ने यह भी माना कि किसी भी वैधानिक अधिकार को नकारा नहीं जा सकता, और यह भी सिद्ध किया कि पति ने वयस्क होने के बाद विवाह को स्वीकार करने का कोई विकल्प नहीं चुना। इस संदर्भ में कोर्ट ने फैमिली कोर्ट द्वारा दी गई याचिका को खारिज करने के आधारों को अनुचित और भ्रामक माना।
ALLAHABAD HC: आर्थिक सहायता और पुनर्वास का प्रावधान
उच्च न्यायालय ने मामले की गंभीरता और सामाजिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए पति को निर्देश दिया कि वह पत्नी को 25 लाख रुपये की स्थायी भरण-पोषण राशि का भुगतान एक महीने के भीतर करें। हालांकि पत्नी अपने माता-पिता के साथ रहती है, इसलिए आवास की अतिरिक्त मांग को अस्वीकार कर दिया गया।
अदालत ने यह भी कहा कि यह भरण-पोषण राशि एक न्यायसंगत संतुलन स्थापित करने का प्रयास है, जिससे दोनों पक्षों के भविष्य को सुरक्षित बनाया जा सके।
पत्नी के वकीलों ने अदालत से 50 लाख रुपये की भरण-पोषण राशि और आवास की मांग की थी, जबकि पति की ओर से वकीलों ने 15 लाख रुपये का प्रस्ताव रखा था। हालांकि, अदालत ने इस बीच का रास्ता अपनाते हुए भरण-पोषण राशि को 25 लाख रुपये पर निर्धारित किया।
ALLAHABAD HC: उच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय
अंततः, उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता के पक्ष में फैसला सुनाते हुए फैमिली कोर्ट के आदेश को निरस्त कर दिया। कोर्ट ने 2004 में हुए विवाह को बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत अमान्य घोषित किया और पति को निर्देश दिया कि वह एक महीने के भीतर पत्नी को 25 लाख रुपये की राशि अदा करें।
यह फैसला बाल विवाह के खिलाफ उठाए गए एक सख्त कदम को प्रदर्शित करता है और यह भी स्पष्ट करता है कि किसी भी बाल विवाह को वैधता प्रदान नहीं की जा सकती। अदालत ने यह भी निर्देशित किया कि विवाह में शामिल व्यक्ति यदि विवाह के अमान्य होने की याचिका प्रस्तुत करते हैं, तो उनके वैधानिक अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए।