हाईकोर्ट का सख्त रुख: चंडीगढ़- पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने हरियाणा के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (ACB) को आपराधिक कानून की मूलभूत अवधारणाओं से भटकने के लिए कड़ी फटकार लगाई है।
हाईकोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह देखना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि पुलिस अधिकारी कानून की अदालत की तरह कार्य कर रहे हैं। न्यायालय ने भ्रष्टाचार से जुड़े एक मामले में टिप्पणी करते हुए कहा कि मामले की संपत्ति को सुपरदारी पर छोड़ना और साक्ष्य की स्वीकार्यता तय करना पुलिस का कार्यक्षेत्र नहीं है।
हाईकोर्ट का सख्त रुख: न्यायालय की तीखी टिप्पणी
जस्टिस एनएस शेखावत की एकल पीठ ने एसीबी अधिकारियों के कार्य पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि वे भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) की गलत व्याख्या कर रहे हैं। विशेष रूप से, उन्होंने BSA को जांच के चरण में लागू कर दिया, जबकि यह अधिनियम केवल न्यायिक कार्यवाही के दौरान लागू होता है। यह एक गंभीर चूक मानी गई है, जिससे न केवल जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं बल्कि आरोपी के खिलाफ मुकदमे की मजबूती पर भी असर पड़ सकता है।
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मोबाइल फोन साक्ष्य का विवाद
मामला उस मोबाइल फोन से जुड़ा है जिसमें कथित तौर पर घूस की बातचीत रिकॉर्ड की गई थी। ACB ने यह फोन न तो अपने कब्जे में लिया और न ही इसे अदालत में पेश किया। इसके विपरीत, उन्होंने फोन को शिकायतकर्ता को वापस लौटा दिया और अदालत की सुपरदारी कार्यवाही के बाद इसे लौटाना बताया।
न्यायालय की नाराजगी
न्यायालय ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई और कहा कि यह “एक अनूठी आपराधिक जांच का सबसे सुस्पष्ट उदाहरण है,” जहां एसीबी के वरिष्ठ अधिकारी जैसे ADGP, पुलिस अधीक्षक और जांच अधिकारी, कानून की स्थापित प्रक्रिया से भटक रहे हैं और न्यायालय को कानून की अपनी व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं। यह आचरण न्यायिक गरिमा के विरुद्ध है।
राज्य का पक्ष और न्यायालय की असहमति
राज्य के वकील ने दलील दी कि जिस फोन में बातचीत रिकॉर्ड की गई थी, वह पहले केस की संपत्ति नहीं थी और बाद में उसे केस संपत्ति माना गया। उन्होंने यह भी कहा कि BSA की धारा 57 के अनुसार, सीडी (जो फोन से तैयार की गई) भी एक “प्राथमिक साक्ष्य” है।
हालांकि, अदालत ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया और कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 केवल न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होता है, न कि पुलिस जांच पर। बीएसए की धारा 57 का उपयोग कर पुलिस द्वारा साक्ष्य की स्वीकार्यता तय करना पूरी तरह से गलत है।
BNS और BSA की अनदेखी
अदालत ने स्पष्ट किया कि जब किसी संपत्ति को पुलिस द्वारा जब्त किया जाता है और उसे अदालत में प्रस्तुत किया जाता है, तब BNS की धारा 497 के तहत अदालत उसे उचित अभिरक्षा में रखने का आदेश दे सकती है। लेकिन हरियाणा के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के अधिकारी BNS और BSA दोनों के प्रावधानों से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं और गंभीर मामलों की जांच कर रहे हैं। यह न केवल न्यायिक प्रक्रिया के लिए खतरनाक है, बल्कि न्यायपालिका के साथ छल करने का प्रयास भी है।
न्यायालय की चिंताएं
अदालत ने कहा कि इस प्रकार मोबाइल फोन लौटाने से कई मामलों में आरोपी बरी हो सकते हैं और इससे भ्रष्टाचार के पीड़ितों के अधिकारों पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि यह आचरण अवमानना की सीमा को छूता है और आपराधिक अपराध के दायरे में आता है। प्रथम दृष्टया यह प्रतीत होता है कि ADGP, SP और जांच अधिकारी पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत मुकदमा चलना चाहिए।
nishikant dubey on supreme court
गृह सचिव को जारी निर्देश
न्यायालय ने हरियाणा के गृह सचिव को निम्नलिखित बिंदुओं पर हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया:
- पिछले दो वर्षों में एसीबी द्वारा दर्ज मामलों की सूची जिनमें केस संपत्ति/दस्तावेज स्वयं ही लौटा दिए गए।
- क्या ACB द्वारा BNS की धारा 497 का उल्लंघन कर किसी संपत्ति को लौटा देने के संबंध में कोई लिखित आदेश जारी किया गया है?
- क्या कोई ऐसा सरकारी या पुलिस अधिकारी है जिसने बीएसए के तहत साक्ष्य की स्वीकार्यता तय करने की शक्ति पुलिस को दी है?
- क्या किसी पुलिस अधिकारी को सुपरदारी आदेश पारित करने या संपत्ति मुक्त करने की शक्ति दी गई है?
आरोपियों को जवाब देने का अवसर
न्यायालय ने कहा कि अंतिम कार्यवाही से पहले तीनों अधिकारियों (ADGP, SP और IO) को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाएगा और उन्हें अगली सुनवाई में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित रहना होगा।
न्यायमित्र की नियुक्ति और अगली सुनवाई
न्यायालय ने वरिष्ठ अधिवक्ता वियॉन्ड घई और प्रीतिंदर सिंह अहलूवालिया को न्यायमित्र नियुक्त किया है। मामले की अगली सुनवाई 28 अप्रैल को तय की गई है। अदालत ने निर्देश दिया कि इस आदेश की प्रति हरियाणा के गृह सचिव को भेजी जाए और अपेक्षा जताई कि अगली सुनवाई तक राज्य ACB में कार्यरत सभी अधिकारियों को कानून का उचित ज्ञान प्रदान करेगा।
यह मामला न केवल जांच की पारदर्शिता और निष्पक्षता की कसौटी पर सवाल खड़े करता है, बल्कि यह भी बताता है कि जब भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जांच एजेंसियां स्वयं दिशाहीन हो जाएं, तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो जाता है।