SUPREME COURT: भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की खंडपीठ ने गुरुवार को ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी द्वारा दायर पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के कार्यान्वयन की मांग वाली याचिका पर सुनवाई के लिए सहमति दी। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा दायर एक संबंधित याचिका के साथ संलग्न करने का आदेश दिया है।
ओवैसी की याचिका में पूजा स्थल अधिनियम 1991 को प्रभावी ढंग से लागू करने की मांग की गई थी, ताकि देश भर में धार्मिक संरचनाओं को लेकर किसी भी विवाद को हल किया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि धार्मिक स्थलों का धार्मिक चरित्र बरकरार रहे।
SUPREME COURT: संबंधित याचिकाएं और जमीयत उलेमा-ए-हिंद की भूमिका
इस मामले की जटिलता को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने पहले भाजपा नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर जनहित याचिका (पीआईएल) में पक्षकार के रूप में शामिल होने की मांग की थी। इस याचिका में पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।
द्वारका विधानसभा सीट: दिल्ली की खास सीट, जहां हैं पारंपरिक वोटर, जाति समीकरण है हावी 2025 !
गोविंद पानसरे हत्याकांड: बॉम्बे हाईकोर्ट ने जांच की निगरानी समाप्त की, त्वरित कार्यवाही का निर्देश
ओवैसी की याचिका और जमीयत उलेमा-ए-हिंद की याचिका के बीच इस मसले पर महत्वपूर्ण संबंध है, क्योंकि दोनों ही याचिकाएं धार्मिक स्थलों के संरक्षण और उनका धार्मिक चरित्र बनाए रखने के पक्ष में हैं।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय लिया कि दोनों याचिकाओं को एक साथ सुना जाएगा, जिससे एक सुसंगत और व्यापक निर्णय लिया जा सके।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश का महत्व
इससे पहले दिसंबर 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने देश भर की ट्रायल कोर्ट को निर्देश दिया था कि वे पूजा स्थल अधिनियम, 1991 को चुनौती देने वाले मामलों में किसी भी तरह का ठोस आदेश जारी करने या सर्वेक्षण करने से परहेज करें। कोर्ट ने यह कहा था कि यह अधिनियम स्पष्ट रूप से ऐसे मुकदमे दायर करने पर रोक लगाता है। इसके कारण देश भर में चल रहे कम से कम 18 मुकदमे प्रभावित हो रहे हैं, जो विभिन्न धार्मिक संरचनाओं से जुड़े हैं।
इन मामलों में कई व्यक्तियों और हिंदू संगठनों द्वारा दायर दावे किए गए थे कि मस्जिदों का निर्माण प्राचीन हिंदू मंदिरों के स्थल पर किया गया था, और इन धार्मिक संरचनाओं का धार्मिक चरित्र बदलने के प्रयास किए जा रहे थे। इस निर्णय से यह स्पष्ट हुआ कि अदालत पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के तहत इस प्रकार के मुकदमों की सुनवाई नहीं करेगी, जब तक कि कोई अन्य संवैधानिक मुद्दा सामने न आए।
SUPREME COURT: पूजा स्थल अधिनियम 1991 की भूमिका और महत्व
पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का उद्देश्य भारत के धार्मिक स्थलों का धार्मिक और ऐतिहासिक चरित्र बनाए रखना है। इस अधिनियम के तहत, यह सुनिश्चित किया गया है कि 15 अगस्त 1947 के बाद से किसी भी धार्मिक स्थल का धार्मिक चरित्र नहीं बदला जाएगा।
इसका मतलब है कि किसी भी धार्मिक स्थल, जैसे मस्जिद, मंदिर, चर्च आदि, को इसके धार्मिक स्वरूप से छेड़छाड़ करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, भले ही वह स्थल किसी ऐतिहासिक विवाद का केंद्र क्यों न बन गया हो।
अधिनियम के तहत यह प्रावधान किया गया है कि यदि कोई धार्मिक स्थल अपने धार्मिक चरित्र को बदलने की कोशिश करता है या इसका स्वरूप बदलने का प्रयास होता है, तो इसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसके बावजूद, कुछ मामलों में यह देखा गया है कि विभिन्न समूहों ने कुछ धार्मिक संरचनाओं को लेकर विवाद उठाए हैं, जिसमें दावा किया गया कि यह स्थल पहले हिंदू मंदिरों के थे।
SUPREME COURT: इस मामले की आगामी सुनवाई और संभावित प्रभाव
अभी इस मामले की अगली सुनवाई फरवरी 2025 में होने की संभावना है। ओवैसी की ओर से इस मामले में पेश हुए अधिवक्ता निजामुद्दीन पाशा ने अदालत से आग्रह किया है कि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू किया जाए, ताकि देश भर में धार्मिक स्थलों के विवादों को सुलझाया जा सके और धार्मिक आस्थाओं का सम्मान सुनिश्चित किया जा सके।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भारत के धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्व रखता है, क्योंकि यह न केवल धार्मिक स्थलों के अधिकारों की रक्षा करेगा, बल्कि देश की धार्मिक विविधता और एकता को भी बनाए रखने में मदद करेगा।
यह मामला धार्मिक और कानूनी दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील है और इसमें सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भारतीय संविधान के धार्मिक स्वतंत्रता और समानता के प्रावधानों के तहत महत्वपूर्ण साबित होगा। पूजा स्थल अधिनियम, 1991 का कार्यान्वयन, यदि सही ढंग से किया जाता है, तो यह न केवल धार्मिक संरचनाओं के संरक्षण में मदद करेगा, बल्कि समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द्र और आपसी सम्मान को भी बढ़ावा देगा।