AFGHANISTAN में द ग्रेट गेम: नई दिल्ली, अप्रैल 2025 — अफगानिस्तान की सरजमीं हमेशा से बड़ी ताकतों के रणनीतिक खेल का मैदान रही है।
19वीं सदी में ब्रिटेन और रूस के बीच शुरू हुआ ‘द ग्रेट गेम’ आज 21वीं सदी में नए खिलाड़ियों, नई रणनीतियों और बदले हुए समीकरणों के साथ एक बार फिर सक्रिय होता दिखाई दे रहा है। साल 2021 में अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद ऐसा माना जा रहा था कि अफगान भूभाग पर जारी दशकों पुराना ‘शतरंजी खेल’ थम जाएगा। लेकिन हाल के घटनाक्रम ने एक बार फिर इस इलाक़े को वैश्विक राजनीति का केंद्र बना दिया है।
AFGHANISTAN में द ग्रेट गेम: अमेरिका की वापसी की आहट
अगस्त 2021 में अमेरिकी सेना ने अफगानिस्तान छोड़ते हुए काबुल एयरपोर्ट से अंतिम फ्लाइट भरी थी। तालिबान ने सत्ता संभाली और अफगानिस्तान में एक इस्लामी अमीरात की घोषणा की। उस वक़्त लगा कि अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों का अफगानिस्तान में अध्याय समाप्त हो गया है। मगर मार्च 2025 में पूर्व अमेरिकी अफगान दूत ज़ालमे खलीलज़ाद के नेतृत्व में अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल का काबुल दौरा इस धारणा को तोड़ गया।
हालांकि आधिकारिक रूप से ये यात्रा अमेरिकी पर्यटक जॉर्ज ग्लेज़मैन की रिहाई के लिए बताई गई, लेकिन सूत्रों की मानें तो असली मंशा अफगानिस्तान में फिर से अपनी सामरिक पकड़ मजबूत करने की है। दरअसल, अमेरिका की नज़र बगराम एयरबेस पर है — वही बगराम जो कभी अमेरिकी सेना का सबसे बड़ा बेस और रणनीतिक ‘फॉरवर्ड ऑपरेटिंग प्वाइंट’ हुआ करता था।
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बगराम एयरबेस की अहमियत
बगराम एयरबेस अफगानिस्तान की राजधानी काबुल से महज 40 किलोमीटर दूर स्थित है। ये न केवल अफगानिस्तान बल्कि पूरे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया पर निगरानी रखने के लिए एक आदर्श सैन्य ठिकाना है। 2001 से 2021 तक अमेरिका यहीं से अपने अफगान और पाकिस्तानी सीमा क्षेत्र में सैन्य ऑपरेशन चलाता था। इस एयरबेस पर फिर से नियंत्रण पाने का मतलब है — ईरान, चीन, रूस और पाकिस्तान पर सामरिक बढ़त हासिल करना।
सूत्र बताते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में तालिबान से ‘बंद दरवाजों के पीछे’ ऐसी बातचीत होती रही है जिसमें अमेरिका ने बगराम को फिर से ऑपरेशनल करने का प्रस्ताव रखा। तालिबान, जो इस समय अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों से जूझ रहा है, अपने शासन को मान्यता दिलवाने और आर्थिक मदद पाने के लिए अमेरिका की शर्तों पर राज़ी होने को मजबूर हो सकता है।
ईरान और चीन की चिंता
अगर अमेरिका की वापसी होती है तो सबसे बड़ी चिंता ईरान और चीन को है। ईरान, अफगानिस्तान के पश्चिमी हिस्से में शिया बहुल आबादी वाले क्षेत्रों पर अपना प्रभाव बनाए रखना चाहता है। साथ ही, वह पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट के मुकाबले चाबहार पोर्ट को भारत और मध्य एशिया के लिए विकल्प के रूप में स्थापित करना चाहता है। बगराम पर अमेरिका का दोबारा कब्ज़ा, ईरान की इस रणनीति को खतरे में डाल सकता है।
वहीं, चीन ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत अफगानिस्तान में भारी निवेश की योजना बनाई थी। चीन चाहता है कि वह पाकिस्तान-अफगानिस्तान होते हुए मध्य एशिया और यूरोप तक अपना कारोबारी नेटवर्क फैला सके। मगर अमेरिका की मौजूदगी इस परियोजना में अड़चन डाल सकती है। खासतौर पर बगराम से अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की सक्रियता चीन की गतिविधियों पर सीधी निगरानी रख सकेगी।
पाकिस्तान की मुश्किलें
पाकिस्तान, जो दशकों तक तालिबान का समर्थक और अफगान राजनीति का ‘छुपा खिलाड़ी’ रहा, अब घिरता नजर आ रहा है। तालिबान शासन बनने के बाद से पाकिस्तान की ‘प्रॉक्सी पॉलिटिक्स’ बेकाबू हो चुकी है। तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने अफगानिस्तान से संचालित होते हुए पाकिस्तान पर हमले तेज़ कर दिए हैं। बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में अलगाववादी और आतंकी घटनाएं बढ़ी हैं। इससे पाकिस्तान की आंतरिक सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय साख दोनों पर असर पड़ा है।
अगर अमेरिका बगराम पर लौटता है, तो पाकिस्तान को दोहरा नुकसान होगा। पहला — अमेरिका का क्षेत्र में प्रभाव फिर से बढ़ जाएगा, जिससे पाकिस्तान की कूटनीतिक हैसियत कमज़ोर होगी। दूसरा — तालिबान पर पाकिस्तान का नियंत्रण और कमजोर होगा, क्योंकि तालिबान और अमेरिका के सीधे संवाद से पाकिस्तान ‘बाईपास’ हो जाएगा।
डॉन अख़बार में प्रकाशित एक लेख में पाकिस्तानी विश्लेषक आरके कौशिक ने लिखा, “अगर अमेरिका बगराम एयरबेस को फिर से एक्टिव करता है, तो पाकिस्तान की अफगान नीति पूरी तरह असफल हो जाएगी। क्योंकि TTP और बलूच विद्रोही अमेरिका की नज़र में रहेंगे और तालिबान को पाकिस्तान की परवाह नहीं करनी पड़ेगी।”
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भारत के लिए अवसर
भारत, जिसने अफगानिस्तान में हमेशा निवेश और विकास परियोजनाओं के ज़रिए अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है, इस नए ग्रेट गेम में संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है। ईरान के साथ मिलकर चाबहार पोर्ट को विकसित करना और मध्य एशिया तक संपर्क बढ़ाना भारत की प्रमुख रणनीति है। इसके अलावा भारत के लिए अमेरिका की वापसी TTP और पाकिस्तान समर्थित आतंकी समूहों की गतिविधियों पर लगाम लगाने का भी मौका हो सकता है।
अफगानिस्तान फिर बना वैश्विक राजनीति का अखाड़ा
अफगानिस्तान एक बार फिर वैश्विक कूटनीति का अखाड़ा बन चुका है। अमेरिका, ईरान, चीन, भारत, रूस और पाकिस्तान — सभी अपने-अपने हितों के लिए सक्रिय हो चुके हैं। तालिबान, जो अपनी शासन मान्यता और आर्थिक सहायता के लिए संघर्ष कर रहा है, अब मजबूरी में बड़ी ताकतों के हाथों की कठपुतली बनने को मजबूर है।
अमेरिका की बगराम एयरबेस पर वापसी की योजना न केवल सैन्य सामरिक बढ़त दिलाएगी, बल्कि अमेरिका को अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तान, ईरान और चीन की गतिविधियों पर भी पैनी नज़र रखने का अवसर देगी। वहीं पाकिस्तान इस घटनाक्रम से सबसे बड़ा नुकसान झेलने वाला पक्ष होगा।
एक तरफ, TTP और बलूच अलगाववादी हमलों से पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति बिगड़ रही है। दूसरी तरफ, अफगानिस्तान में तालिबान का अमेरिकी खेमे में झुकाव, पाकिस्तान के लिए रणनीतिक हार का संकेत बनता जा रहा है।
अफगानिस्तान बना वैश्विक शक्तियों की नई जंग का मैदान
अगले कुछ हफ्ते बेहद निर्णायक होंगे। अमेरिकी कूटनीति अफगानिस्तान में और गहराई से प्रवेश कर सकती है। तालिबान को अमेरिका से आर्थिक रियायतें और अंतरराष्ट्रीय मान्यता का लालच मिल सकता है। ईरान और चीन इस घटनाक्रम को करीब से देख रहे हैं और अपने अपने मोर्चे पर जवाबी रणनीति तैयार कर रहे हैं। भारत के लिए भी ये समय सधे हुए कूटनीतिक कदम उठाने का है।
साफ है — अफगानिस्तान में ‘द ग्रेट गेम’ की वापसी हो चुकी है। अब देखना ये है कि इस बार बाज़ी किसके हाथ लगती है।