BOMBAY HC: बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु वर्ष 1956 से पहले होती है और उसने अपनी संपत्ति के उत्तराधिकार में पत्नी और बेटी को छोड़ा है, तो बेटी को उस संपत्ति में कोई अधिकार प्राप्त नहीं होगा।
इस फैसले के साथ ही कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 से पहले की संपत्ति के अधिकार से संबंधित मुद्दे को भी स्पष्ट किया है, जिसके तहत बेटियों को अधिकार की स्वीकृति नहीं दी गई थी।
BOMBAY HC: कोर्ट का रुख और मुद्दा
कोर्ट का यह निर्णय एक विशेष मामले में आया, जहां एक बेटी ने अपने मृत पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने के लिए दावा किया था। उसने आधे हिस्से का अधिकार यह कहते हुए माँगा कि पिता की संपत्ति में उसकी भी समान हिस्सेदारी होनी चाहिए। कोर्ट के सामने यह सवाल था कि क्या 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम से पहले किसी बेटी को अपने पिता की संपत्ति में कोई सीमित या पूर्ण अधिकार प्राप्त हो सकता है।
इस संदर्भ में, न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर और न्यायमूर्ति जितेंद्र जैन की खंडपीठ ने इस मामले पर व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि 1956 से पूर्व की व्यवस्था में बेटियों को पिता की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं था।
कैबिनेट का सख्त संदेश: बसों में मार्शल बहाली से महिलाओं के सफर में सुरक्षा का नया आश्वासन 2024 !
culcutta hc: यातना का आरोप न होने पर क्रूरता का मामला खारिज
इस मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता राम एस. आप्टे ने अपीलकर्ताओं की ओर से और वरिष्ठ अधिवक्ता अशुतोष ए. कुम्भकोनी ने प्रतिवादियों की ओर से कोर्ट में अपना पक्ष प्रस्तुत किया। अपीलकर्ता पिता की पहली शादी से जन्मी बेटी थी, जिसने संपत्ति में अधिकार का दावा किया था। हालांकि, निचली अदालत ने इस दावे को खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि 1937 के हिंदू महिलाओं के संपत्ति अधिकार अधिनियम के अनुसार, पिता की संपत्ति का वारिस केवल उनकी विधवा बन सकती थी। इस तरह की स्थिति में, 1956 में उस संपत्ति का पूर्ण स्वामित्व विधवा को ही प्राप्त हो जाता।
BOMBAY HC: 1937 के कानून का महत्व और विधवा का अधिकार
कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू महिलाओं के संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 की धारा 3(1) का उल्लेख करते हुए कहा कि इस प्रावधान में यह स्पष्ट किया गया है कि विधवा को पुत्र के बराबर का हिस्सा प्राप्त होगा। इस कानून में बेटी के पक्ष में किसी भी प्रकार का उत्तराधिकार का अधिकार नहीं दिया गया था। इसके तहत, 1956 से पहले की स्थिति में विधवा को पति की संपत्ति का वारिस माना गया और उसे उस संपत्ति का पूर्ण अधिकार मिल गया।
कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि 1956 के बाद, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने पर बेटियों को भी उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान किया गया। इसके बाद, 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में बेटियों को पहली बार प्राथमिक वारिसों की श्रेणी में शामिल किया गया, और इस प्रकार उन्हें पिता की संपत्ति में अधिकार मिला।
कोर्ट ने इस बदलाव के महत्व को भी रेखांकित किया, लेकिन कहा कि इस मामले में उस समय के कानून को ही ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना आवश्यक है, क्योंकि यह मामला 1956 से पहले की स्थिति से संबंधित है।
BOMBAY HC: विशेषज्ञों की राय और कोर्ट का दृष्टिकोण
कोर्ट ने विशेषज्ञों की राय का भी उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा कि उत्तराधिकार के कानून के बारे में विशेषज्ञों के विचारों को सीधे कानून की तरह नहीं देखा जा सकता, लेकिन इन विचारों का उपयोग उस समय की प्रथाओं को समझने के लिए किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से, कोर्ट ने 1956 से पहले के उत्तराधिकार कानून को समझने के लिए उस समय की सामाजिक और कानूनी प्रथाओं का अवलोकन किया और उस पर निर्णय दिया।
कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले की व्यवस्था में बेटी को पिता की संपत्ति में किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि आपराधिक मुकदमे परिवार के लिए बदनामी और कलंक लेकर आते हैं और इसमें पर्याप्त सबूतों की कमी को ध्यान में रखते हुए, याचिका को खारिज कर दिया गया।
BOMBAY HC: फैसले का व्यापक प्रभाव और निष्कर्ष
यह निर्णय हिंदू उत्तराधिकार के मामलों में बेटियों के अधिकारों के संदर्भ में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे स्पष्ट होता है कि 1956 से पहले की स्थिति में बेटियों को संपत्ति के अधिकार में शामिल नहीं किया गया था। इस निर्णय से 1956 के अधिनियम की प्रासंगिकता और उस समय के कानून की पृष्ठभूमि को भी उजागर किया गया है। इस फैसले का प्रभाव यह है कि यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु 1956 से पहले हुई है, तो उसकी संपत्ति में विधवा को ही अधिकार मिलेगा, बेटी को नहीं।
मामला शीर्षक: राधाबाई बालासाहेब शिर्के (मृतक) और अन्य बनाम केशव रामचंद्र जाधव और अन्य (तटस्थ उद्धरण: 2024:BHC-AS:43314)
प्रतिनिधित्व:
- अपीलकर्ता: वरिष्ठ अधिवक्ता राम एस. आप्टे; वकील एस.जी. देशमुख, उदय बी. निघोट, सुलज्जा पाटिल, मयूरेश लागू और सागत पाटिल
- प्रतिवादी: वरिष्ठ अधिवक्ता अशुतोष ए. कुम्भकोनी; वकील द्रुपद पाटिल, रुतुजा अंबेकर, नमित पंसारे, रुग्वेद किंकर, सृष्टि चालके, अभिजीत बी. कदम, आशीष चव्हाण, सार्थक एस. दिवान, मनोज बादगुजर, स्नेहा एस. भांगे, आर.एम. हरिदास, प्रतीक रहाड़े, सोमनाथ थेन्गल, सुमीत खैरे और अनिल शिटोले।