CHHATTISGARH HIGH COURT: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही एक महिला और उसकी बेटी को घरेलू हिंसा अधिनियम (डीवी एक्ट) के तहत भरण-पोषण देने के आदेश को बरकरार रखा। कोर्ट ने उस व्यक्ति की याचिका को खारिज कर दिया, जिसने निचली अदालत के फैसले को चुनौती देते हुए भरण-पोषण देने से इनकार किया था।
यह मामला उस व्यक्ति द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका से जुड़ा था, जिसमें उसने निचली अदालत के आदेश को चुनौती दी थी, जिसने उसे महिला को प्रति माह ₹4,000 और उसकी तीन साल की बेटी के लिए अतिरिक्त ₹2,000 देने के साथ-साथ ₹50,000 की एकमुश्त क्षतिपूर्ति पांच किस्तों में अदा करने का आदेश दिया था।
CHHATTISGARH HIGH COURT: मामले का विवरण
इस मामले की पृष्ठभूमि 2016 से जुड़ी है, जब व्यक्ति और महिला ने एक साथ रहने का फैसला किया और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने लगे। उनके इस रिश्ते से एक बच्ची का जन्म भी हुआ। महिला ने अपने साथी पर आरोप लगाया कि वह शराब की लत का शिकार है और अक्सर मौखिक दुर्व्यवहार करता था। महिला ने व्यक्ति पर क्रूरता का आरोप लगाते हुए पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और इसके साथ ही घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भरण-पोषण के लिए आवेदन किया। महिला ने यह दावा किया कि व्यक्ति की प्रताड़नाओं से तंग आकर उसे यह कदम उठाना पड़ा।
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महिला की शिकायत के आधार पर निचली अदालत ने व्यक्ति को आदेश दिया कि वह महिला को और उनकी बेटी को वित्तीय सहायता प्रदान करे। व्यक्ति ने इस आदेश को चुनौती देते हुए पुनरीक्षण याचिका दाखिल की और अदालत से गुहार लगाई कि वह पहले से शादीशुदा है और उसकी उस शादी से तीन बच्चे भी हैं, इसलिए वह महिला को भरण-पोषण देने के लिए बाध्य नहीं है।
CHHATTISGARH HIGH COURT: हाईकोर्ट की टिप्पणी
इस मामले में न्यायमूर्ति नरेंद्र कुमार व्यास की अध्यक्षता वाली पीठ ने व्यक्ति की दलीलों को सुनते हुए फैसला सुनाया। न्यायमूर्ति व्यास ने कहा कि “आवेदक द्वारा प्रस्तुत सामग्री और वकील की दलीलों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि आवेदक पहले से ही शादीशुदा है और इसलिए प्रतिवादी नंबर 1 (महिला) को डीवी एक्ट का लाभ नहीं दिया जा सकता, यह तर्क अस्वीकार किया जाता है।”
अदालत ने पाया कि व्यक्ति यह साबित करने में विफल रहा कि महिला को उसके शादीशुदा होने की जानकारी थी। अदालत ने यह भी माना कि महिला को इस तथ्य का ज्ञान नहीं था कि व्यक्ति पहले से शादीशुदा है और उसकी उस शादी से तीन बच्चे भी हैं। इसके बावजूद, उनके इस रिश्ते से एक बच्ची का जन्म हुआ। अदालत ने व्यक्ति के इस तर्क को खारिज कर दिया कि वह पहले से शादीशुदा होने के कारण महिला को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत किसी भी प्रकार की वित्तीय सहायता देने के लिए बाध्य नहीं है।
CHHATTISGARH HIGH COURT: कानूनी आधार
इस फैसले में न्यायमूर्ति व्यास ने डीवी एक्ट की विशेषताओं पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि यह अधिनियम विशेष रूप से महिलाओं के लिए बनाया गया है, ताकि वे हिंसा मुक्त घरेलू वातावरण में रह सकें। न्यायमूर्ति व्यास ने कहा, “घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिलाओं को हिंसा मुक्त घर में रहने का अधिकार है, और यह अधिनियम विशेष प्रावधानों के माध्यम से उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करता है।”
न्यायालय ने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि चूंकि व्यक्ति पहले से शादीशुदा है, इसलिए महिला को घरेलू हिंसा अधिनियम का लाभ नहीं मिल सकता। न्यायालय ने कहा कि आवेदक ने कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जिससे यह साबित हो सके कि महिला को पहले से ही उसकी वैवाहिक स्थिति और उसके परिवार के बारे में जानकारी थी।
CHHATTISGARH HIGH COURT: महत्वपूर्ण संदर्भ
अदालत ने ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य के मामले का हवाला देते हुए कहा कि चाहे महिला अलग हुई पत्नी हो या लिव-इन पार्टनर, वह आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत दिए गए प्रावधानों से अधिक राहत पाने की हकदार है। धारा 125 के तहत दी जाने वाली राहत वित्तीय सहायता तक सीमित होती है, जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत महिलाओं को “साझा घर” में रहने का अधिकार दिया गया है, जिससे उन्हें केवल वित्तीय सहायता से अधिक व्यापक सुरक्षा मिलती है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि डीवी एक्ट के तहत महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा केवल शादीशुदा महिलाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन महिलाओं को भी लागू होती है जो लिव-इन रिलेशनशिप में हैं और जिनका संबंध घरेलू संबंधों की श्रेणी में आता है। इस अधिनियम के तहत उन्हें न केवल वित्तीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार है, बल्कि वे घरेलू हिंसा से बचाव और एक सुरक्षित माहौल में रहने का अधिकार भी प्राप्त कर सकती हैं।
CHHATTISGARH HIGH COURT: अंतिम निष्कर्ष
अंततः, छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने व्यक्ति की पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया और निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा। हाईकोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला और उसकी बेटी को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत भरण-पोषण का अधिकार मिले। कोर्ट ने कहा कि व्यक्ति और महिला के बीच का संबंध घरेलू हिंसा अधिनियम द्वारा परिभाषित घरेलू संबंधों की श्रेणी में आता है और महिला को इस अधिनियम के तहत पूर्ण सुरक्षा और भरण-पोषण का हक है।
इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय न्यायपालिका महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है, चाहे वह लिव-इन रिलेशनशिप में हों या वैवाहिक संबंधों में। घरेलू हिंसा अधिनियम के माध्यम से महिलाओं को उनके जीवन में सुरक्षा और गरिमा प्रदान करने की दिशा में यह फैसला एक महत्वपूर्ण कदम है।