DELHI HC: दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक कॉलेज प्रोफेसर की विधवा द्वारा दायर की गई याचिका को मंजूरी देते हुए महत्वपूर्ण निर्णय लिया कि अगर किसी कर्मचारी को 5 साल से अधिक अवधि के लिए गलती से भुगतान किया गया हो, तो नियोक्ता को उस गलती को सुधारने का अधिकार तो है, लेकिन उससे भुगतान की वापसी की मांग करना अत्यधिक अन्यायपूर्ण और मनमाना होगा।
यह याचिका संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई थी, जिसमें कॉलेज द्वारा प्रोफेसर के मृतक पति के अवकाश नकदीकरण से 9 लाख रुपये का भुगतान रोके जाने के मामले में न्याय की मांग की गई थी। अदालत ने यह आदेश पारित करते हुए यह स्पष्ट किया कि 5 साल से अधिक समय तक की गलती को सुधारने की मांग नियोक्ता के लिए उचित नहीं होगी।
DELHI HC: प्रोफेसर की विधवा की मानसिक स्थिति और संघर्ष
इस मामले में, याचिकाकर्ता की विधवा ने न्यायालय से अपील की थी कि उनके पति के अवकाश नकदीकरण का जो 9 लाख रुपये का भुगतान रोका गया था, वह उन्हें शीघ्र जारी किया जाए। जस्टिस ज्योति सिंह की एकल पीठ ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता एक बेहद कठिन समय से गुजर रही हैं।
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उन्होंने 2021 में एक महीने के भीतर अपने पति और छोटे बेटे को खो दिया था। दूसरी ओर, उन्हें अपने पति के अवकाश नकदीकरण के पैसे के लिए कॉलेज के चक्कर काटने पड़ रहे थे, जो उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर अतिरिक्त बोझ डाल रहा था। कोर्ट ने याचिकाकर्ता के दर्द और संघर्ष को समझते हुए उसके पक्ष में फैसला दिया।
याचिकाकर्ता के पति ने 2005-2006 में कॉलेज में गणित विभाग में कार्यभार संभाला था और उनका निधन कोविड-19 संक्रमण के कारण 2021 में हो गया। इसके बाद, याचिकाकर्ता ने कई बार कॉलेज से अपने पति के शेष लाभों, जैसे कि अवकाश नकदीकरण और अन्य रिटायरमेंट लाभ, की रिलीज़ की मांग की।
कॉलेज ने यह स्वीकार किया कि 2001 से शुरू हुए अधिक भुगतान के कारण 9 लाख रुपये की राशि याचिकाकर्ता के पति के अवकाश नकदीकरण से काटी जानी थी। हालांकि, इस बारे में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया और अंततः याचिकाकर्ता को उच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा।
DELHI HC: कोर्ट का निर्णय और कानूनी दृष्टिकोण
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले की गहराई से जांच की और देखा कि कॉलेज और विश्वविद्यालय दोनों ने याचिकाकर्ता के पति की सेवा पुस्तिका में हुई गलती को सुधारने के लिए एक प्रस्ताव भेजा था, लेकिन यह प्रक्रिया अत्यधिक विलंबित रही।
यह भी स्पष्ट था कि इस पूरी प्रक्रिया में याचिकाकर्ता के पति की मृत्यु के बाद ही यह सुधारात्मक कार्रवाई की गई, और इसके परिणामस्वरूप 9 लाख रुपये की वसूली की मांग की जा रही थी। अदालत ने इस स्थिति को अन्यायपूर्ण और अत्यधिक कठोर करार दिया, खासकर याचिकाकर्ता की व्यक्तिगत स्थिति को ध्यान में रखते हुए।
इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि यदि किसी कर्मचारी को 5 साल से अधिक समय तक गलत तरीके से भुगतान किया गया हो, तो नियोक्ता को उस गलत भुगतान की वसूली करने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि 5 साल से अधिक समय के दौरान गलत भुगतान की वसूली करना न केवल कानूनी रूप से गलत है, बल्कि यह कर्मचारी के प्रति अत्यधिक अन्यायपूर्ण और मनमाना भी है।
कोर्ट ने यह भी देखा कि कॉलेज और विश्वविद्यालय ने याचिकाकर्ता के पक्ष में कई बार प्रस्ताव भेजे थे और उनकी रिकवरी की मांग को माफ करने की कोशिश की थी।
हालांकि, इस मामले में यह एक और महत्वपूर्ण तथ्य था कि कॉलेज और विश्वविद्यालय ने अपनी ओर से याचिकाकर्ता के पति के लिए रिकवरी छूट का प्रस्ताव भेजने में अत्यधिक विलंब किया, और यह प्रक्रिया उनके निधन के बाद ही पूरी हुई। इसके परिणामस्वरूप, कॉलेज और विश्वविद्यालय की ओर से की गई कार्रवाई को अदालत ने अत्यधिक विलंबित और असंवेदनशील माना।
अंत में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका मंजूर करते हुए कॉलेज को आदेश दिया कि वह याचिकाकर्ता को उनका अवकाश नकदीकरण भुगतान और उस पर ब्याज के साथ 6 सप्ताह के भीतर जारी करे। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि 9 लाख रुपये की वसूली कानूनी रूप से अवैध थी और इसे वापस लिया जाना चाहिए।
DELHI HC: न्यायालय का नजरिया
दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस फैसले के माध्यम से यह संदेश दिया कि गलती से किए गए भुगतान के मामले में नियोक्ता को समयसीमा के भीतर कार्रवाई करनी चाहिए और यदि वह भुगतान 5 साल से अधिक समय तक जारी किया गया हो, तो उसकी वापसी की मांग करना अन्यायपूर्ण होगा।
अदालत ने इस मामले में याचिकाकर्ता की पीड़ा और संघर्ष को ध्यान में रखते हुए फैसला दिया, जिससे यह साबित हुआ कि न्यायपालिका न केवल कानूनी पहलुओं पर, बल्कि मानवता और संवेदनशीलता पर भी विचार करती है।
इस मामले में न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि 5 साल से अधिक समय तक की गई गलती को सुधारने के प्रयास के दौरान कर्मचारियों के प्रति न्यायपूर्ण और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता है।
उच्च न्यायालय ने इस मामले में याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए न केवल कानूनी दृष्टिकोण को सही ठहराया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि संबंधित व्यक्ति को उनके हक का पूरा भुगतान मिले। यह निर्णय न केवल इस केस में, बल्कि भविष्य में भी समान परिस्थितियों में कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा करेगा।