delhi high court: दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण मामले में निर्णय दिया कि संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत मध्यस्थता (arbitration) मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप केवल अपवादात्मक मामलों में ही किया जा सकता है। यह निर्णय एक याचिका के संदर्भ में आया, जिसमें याचिकाकर्ता ने मध्यस्थ के एक आदेश को चुनौती दी थी। यह आदेश 24 सितंबर, 2024 को दिया गया था, जिसमें मध्यस्थ ने याचिकाकर्ता द्वारा अतिरिक्त दस्तावेज प्रस्तुत करने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था।
याचिकाकर्ता ने अदालत में दलील दी कि उन्हें उन दस्तावेज़ों की आवश्यकता जिरह के बाद महसूस हुई थी, जबकि मध्यस्थ का तर्क था कि यह दस्तावेज पहले से ही याचिकाकर्ता के पास थे और उन्हें समय पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए था।
delhi high court: मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस समय शुरू हुआ जब याचिकाकर्ता ने एकल मध्यस्थ के आदेश को चुनौती दी, जिसमें उनकी अतिरिक्त दस्तावेज प्रस्तुत करने की याचिका को खारिज कर दिया गया था। मध्यस्थ ने इस आधार पर याचिका को खारिज किया था कि याचिकाकर्ता ने दस्तावेज़ों को पहले क्यों नहीं प्रस्तुत किया, इसका उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया था। मध्यस्थ ने अपने आदेश में यह भी कहा कि ये दस्तावेज़ पहले से ही याचिकाकर्ता के पास थे और उन्हें पहले से ही मध्यस्थता प्रक्रिया में पेश किया जाना चाहिए था।
इस मामले में महत्वपूर्ण बात यह थी कि मध्यस्थता की कार्यवाही पहले से ही काफी आगे बढ़ चुकी थी। 16 अक्टूबर, 2023 को मामले में मुद्दों का निर्धारण हो चुका था, और दोनों पक्षों ने अपने साक्ष्य भी प्रस्तुत कर दिए थे। न्यायमूर्ति मनोज जैन की पीठ ने इस बात पर ध्यान दिया कि मामले की कार्यवाही लगभग समाप्ति के करीब थी, और याचिकाकर्ता ने यह भी स्वीकार किया कि दस्तावेज़ पहले से ही उनके पास थे, लेकिन उन्होंने यह तर्क दिया कि जिरह के बाद ही इन दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने की आवश्यकता महसूस हुई थी।
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delhi high court: न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता शुभम वर्मा ने इस मामले में प्रस्तुतियां दीं, जबकि प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ताओं ने मध्यस्थ के आदेश का समर्थन किया। इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने पहले से स्थापित न्यायिक प्रथाओं और पूर्व न्यायिक फैसलों का हवाला दिया।
विशेष रूप से, अदालत ने Kelvin Air Conditioning And Ventilation System Private Limited बनाम Triumph Reality Private Limited (2024) के मामले का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत न्यायालय मध्यस्थ न्यायाधिकरणों के आदेशों के खिलाफ याचिकाएं सुन सकता है, लेकिन यह हस्तक्षेप अपवादात्मक परिस्थितियों तक सीमित होना चाहिए।
दिल्ली हाईकोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 227 एक संवैधानिक प्रावधान है, और यह मध्यस्थता और सुलह अधिनियम की धारा 5 के गैर-अवरोधक प्रावधान से प्रभावित नहीं होता है। इसका मतलब यह है कि, संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत न्यायालय के पास अधिकार क्षेत्र है, लेकिन इस अधिकार का उपयोग केवल उन मामलों में किया जाना चाहिए जहाँ आदेश मौलिक रूप से दोषपूर्ण हो या स्पष्ट रूप से अधिकार क्षेत्र के बाहर हो।
delhi high court: न्यायिक हस्तक्षेप के मानदंड
अदालत ने यह भी कहा कि अनुच्छेद 227 के तहत हस्तक्षेप केवल उन्हीं मामलों में होना चाहिए, जहाँ आदेश अत्यंत विपरीत या अत्यधिक दोषपूर्ण हो। न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि यदि आदेश उच्च न्यायालय के समक्ष बिल्कुल गलत प्रतीत होता है और उसमें कोई स्पष्ट त्रुटि होती है, तभी न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
अदालत ने इस संदर्भ में IDFC First Bank Limited बनाम Hitachi MGRM Net Limited (2023) मामले का भी उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 227 के तहत मध्यस्थ न्यायाधिकरणों के आदेशों के खिलाफ याचिकाओं को गंभीरता से लेना चाहिए, और न्यायालय को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करते समय अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए।
delhi high court: दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय
इस मामले में, अदालत ने यह निर्धारित किया कि मध्यस्थ के आदेश में कोई महत्वपूर्ण दोष या अवैधता नहीं थी। याचिकाकर्ता के तर्कों को ध्यान से सुनने के बाद, अदालत इस निष्कर्ष पर पहुंची कि यह मामला उन अपवादात्मक परिस्थितियों में नहीं आता जहाँ अनुच्छेद 227 के तहत हस्तक्षेप किया जा सके। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज पहले से ही उपलब्ध थे, और उन्हें जिरह के बाद प्रस्तुत करने का तर्क अदालत को उचित नहीं लगा। अदालत ने यह भी कहा कि मध्यस्थ का आदेश कानूनी रूप से सही था और इसमें कोई स्पष्ट त्रुटि नहीं थी।
इसलिए, दिल्ली हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की याचिका को खारिज कर दिया और स्पष्ट किया कि न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 227 के तहत मध्यस्थता मामलों में हस्तक्षेप केवल अपवादात्मक मामलों में ही किया जाएगा। अदालत ने यह भी उल्लेख किया कि यदि याचिकाकर्ता को अपने दस्तावेज प्रस्तुत करने का अवसर पहले से ही दिया गया था, तो उन्हें बाद में नए तर्क के साथ दस्तावेज प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
delhi high court: निष्कर्ष
दिल्ली हाईकोर्ट का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मिसाल स्थापित करता है कि मध्यस्थता मामलों में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप केवल उन्हीं मामलों में किया जा सकता है, जहाँ आदेश मौलिक रूप से दोषपूर्ण हो या न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो। यह निर्णय न्यायिक प्रक्रिया में अनुच्छेद 227 के महत्व और उसकी सीमाओं को स्पष्ट करता है, और यह बताता है कि न्यायालयों को मध्यस्थता मामलों में अत्यधिक सतर्कता और संयम से काम लेना चाहिए।
मामला शीर्षक: डॉ. रंजन जायसवाल बनाम एम/एस एसआरएल लिमिटेड [2024: DHC: 8020]