Hindering CBI Inquiry Is Unjustified: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि यदि ट्रैप (पकड़ने की) कार्रवाई के दौरान कोई अतिरिक्त अपराध या आरोपी सामने आता है, तो केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को आगे की जांच करने से नहीं रोका जा सकता।
अदालत ने यह टिप्पणी उस समय की जब एक भ्रष्टाचार के मामले में रेलवे के वरिष्ठ सेक्शन इंजीनियर अरुण कुमार जिंदल ने अग्रिम जमानत याचिका दायर की थी।
इस निर्णय ने न केवल भ्रष्टाचार विरोधी कानून के कार्यान्वयन को मजबूती दी है, बल्कि यह भी स्पष्ट कर दिया है कि भ्रष्टाचार के मामलों में “पूर्व स्वीकृति” (Sanction under Section 17A of PC Act) की प्रक्रिया को तकनीकी ढाल बनाकर आरोपी बच नहीं सकते।
Hindering CBI Inquiry Is Unjustified: रेलवे इंजीनियर के घर सीबीआई की छापेमारी में कैश और सोना बरामद
CBI ने एक जालसाजी और भ्रष्टाचार के मामले की जांच के दौरान सह-आरोपी के खिलाफ ट्रैप कार्रवाई की थी, जिसमें उसे रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया। इस कार्रवाई के दौरान सीबीआई को अन्य सह-साजिशकर्ताओं के बारे में भी अहम सुराग मिले, जिसमें रेलवे इंजीनियर अरुण कुमार जिंदल का नाम सामने आया।
भले ही याचिकाकर्ता (जिंदल) को घटनास्थल पर नहीं पकड़ा गया, लेकिन बाद में उसके परिसरों में छापेमारी के दौरान सीबीआई ने ₹7.85 लाख नकद और ₹43 लाख मूल्य का सोना बरामद किया। इसके अलावा, यह भी सामने आया कि याचिकाकर्ता ने सीबीआई जांच में न तो सहयोग किया और न ही उसने छापे की सूचना मिलने के बाद कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण दिया।
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याचिकाकर्ता के तर्क
अरुण कुमार जिंदल ने अदालत में अपनी अग्रिम जमानत याचिका दायर करते हुए तर्क दिया कि:
- उसे सीबीआई द्वारा जांच में शामिल होने के लिए कोई नोटिस नहीं भेजा गया।
- पीसी एक्ट की धारा 17ए के अंतर्गत उस पर मुकदमा चलाने के लिए CBI को पूर्व अनुमोदन (Sanction) नहीं मिला है, जो कानून के तहत अनिवार्य है।
- जमानत न देना उसके मौलिक अधिकारों का हनन होगा क्योंकि वह सीधे तौर पर ट्रैप में नहीं पकड़ा गया।
CBI और अभियोजन पक्ष की दलीलें
सीबीआई की ओर से विशेष लोक अभियोजक (SPP) ने इन तर्कों का विरोध करते हुए कहा कि:
- यह एक सुनियोजित आपराधिक साजिश है, जिसमें याचिकाकर्ता रेलवे विभाग में रिश्वत के लेन-देन का प्रमुख सूत्रधार था।
- अभियोजन ने याचिकाकर्ता के उस आचरण की ओर भी ध्यान दिलाया, जिसमें वह जांच में सहयोग न कर केवल सबूतों को मिटाने का प्रयास करता रहा।
- जालसाजी और फर्जी दस्तावेजों के मामलों में धारा 17ए के अंतर्गत पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता लागू नहीं होती क्योंकि ऐसे मामलों में यह मंजूरी जांच के उद्देश्य को ही विफल कर सकती है।
न्यायालय की टिप्पणियां और निर्णय
जस्टिस शालिंदर कौर की एकल पीठ ने मामले में विस्तृत सुनवाई करते हुए यह फैसला सुनाया। अदालत ने साफ शब्दों में कहा:
“निस्संदेह, भ्रष्टाचार के मामलों में जीरो टॉलरेंस का सिद्धांत अपनाया जाना चाहिए। यदि ट्रैप कार्रवाई के दौरान किसी अन्य अपराध या आरोपी की जानकारी मिलती है, तो सीबीआई को जांच जारी रखने से नहीं रोका जा सकता।”
इसके अलावा, अदालत ने 2023 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए CBI बनाम संतोष करनानी मामले के फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि धारा 17ए का उद्देश्य यह नहीं है कि वह जालसाजी जैसे गंभीर अपराधों में जांच को रोक दे।
अदालत ने याचिकाकर्ता के आचरण को “दुर्भावनापूर्ण” बताया। इसके साथ ही यह भी कहा कि जब याचिकाकर्ता को स्पष्ट रूप से जानकारी थी कि उसके परिसरों में सीबीआई का छापा पड़ा है, फिर भी उसने अगली सुबह ही अपने बैंक लॉकर को ऑपरेट किया — यह खुद में संदेह पैदा करता है और सबूतों से छेड़छाड़ की आशंका को मजबूत करता है।
nishikant dubey on supreme court
धारा 17A PC Act की भूमिका
धारा 17ए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत जोड़ी गई थी, जिसका उद्देश्य था कि किसी भी लोकसेवक के खिलाफ जांच शुरू करने से पहले संबंधित सरकार या सक्षम प्राधिकारी से अनुमति ली जाए। लेकिन अदालत ने स्पष्ट किया कि यह प्रावधान उस स्थिति में लागू नहीं होता, जहां जांच का उद्देश्य किसी फर्जीवाड़े या पहले से शुरू की गई जांच के दौरान प्राप्त नई जानकारी की पड़ताल हो।
महत्वपूर्ण निष्कर्ष
इस फैसले से कई बातें स्पष्ट होती हैं:
- धारा 17ए का गलत प्रयोग कर आरोपी जांच से बचने की कोशिश नहीं कर सकते।
- यदि ट्रैप कार्रवाई के दौरान नए सुराग मिलते हैं, तो जांच एजेंसी को कार्रवाई करने का पूरा अधिकार है।
- जमानत याचिकाओं में आरोपी का आचरण एक प्रमुख कारक होता है — यदि वह जांच में सहयोग नहीं करता और सबूतों से छेड़छाड़ की कोशिश करता है, तो उसे राहत नहीं मिल सकती।
भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को न्यायिक समर्थन
इस केस का फैसला न केवल भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई को एक नई दिशा देता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि जांच एजेंसियों को अनावश्यक रूप से तकनीकी बाधाओं में न फंसाया जाए। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भ्रष्टाचार और जालसाजी के मामलों में त्वरित व निष्पक्ष जांच आवश्यक है, ताकि दोषियों को सजा दिलाई जा सके और प्रशासन में पारदर्शिता बनी रहे।
केस शीर्षक: अरुण कुमार जिंदल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI)