SUPREME COURT,: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में सशस्त्र बल अधिकरण (AFT) के उस आदेश को बरकरार रखा, जिसमें भारतीय वायुसेना के अधिकारियों को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304 भाग II के तहत दोषमुक्त किया गया था। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि बरी करने का आदेश निर्दोषता की धारणा को और मजबूत करता है।
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने इस मामले में कहा कि ऐसा कोई भी साक्ष्य नहीं है जिससे यह साबित हो सके कि प्रतिवादी या अन्य किसी आरोपी ने मृतक पर हमला किया हो या उसकी मृत्यु का कारण बनने के लिए किसी प्रकार का कोई कार्य किया हो। कोर्ट ने इस संदर्भ में यह भी कहा कि सिर्फ इस आधार पर बरी के आदेश में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता कि उपलब्ध साक्ष्यों पर अलग नजरिया लिया जा सकता है।
SUPREME COURT: मामले का संक्षिप्त विवरण
इस मामले में, प्रतिवादी और भारतीय वायुसेना के अन्य चार अधिकारियों के खिलाफ जनरल कोर्ट मार्शल (GCM) में विभिन्न आरोप लगाए गए थे, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत हत्या का आरोप, धारा 342 के तहत गलत तरीके से बंधक बनाने का आरोप, और वायुसेना अधिनियम (AFA) के तहत कदाचार का आरोप शामिल था।
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यह मामला एक सिग्नलमैन की कथित दुर्व्यवहार और उसकी मौत से संबंधित था। अभियोजन पक्ष के अनुसार, सिग्नलमैन पर एक अधिकारी के निवास पर अनुचित व्यवहार का आरोप लगाया गया था, जिससे प्रतिवादी ने उसे हिरासत में लेने का आदेश दिया। हिरासत में रहते हुए, सिग्नलमैन ने भागने की कोशिश की और गिरने के कारण गंभीर रूप से घायल हो गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई।
जनरल कोर्ट मार्शल ने प्रतिवादी को धारा 304 भाग II के तहत दोषी ठहराया और उसे पांच साल की कैद की सजा सुनाई, साथ ही उसे सेवा से भी बर्खास्त कर दिया गया था। बाद में, वायुसेना प्रमुख द्वारा इस सजा को घटाकर दो साल कर दिया गया।
इसके बाद प्रतिवादी ने इस दोषसिद्धि के खिलाफ सशस्त्र बल अधिकरण में अपील की, जहां अधिकरण ने दोषसिद्धि को निरस्त कर दिया और सजा को भी समाप्त कर दिया। इसके बाद, इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष द्वारा यह आरोप नहीं लगाया गया कि वाहन में बैठने के दौरान या उससे पहले मृतक के साथ किसी प्रकार का कोई शारीरिक दुर्व्यवहार किया गया था। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि मृतक के शरीर पर पाए गए घावों का जिम्मेदार प्रतिवादी को नहीं ठहराया जा सकता। कोर्ट ने देखा कि अभियोजन पक्ष के पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं था जिससे यह साबित हो सके कि प्रतिवादी ने मृतक की मौत का कारण बनने वाली कोई क्रिया की थी या उसे गंभीर शारीरिक चोट पहुंचाने का इरादा था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि “यह एक स्थापित सिद्धांत है कि बरी करने का आदेश निर्दोषता की धारणा को और भी मजबूत करता है।” कोर्ट ने यह भी कहा कि बरी का आदेश केवल इस आधार पर उलटा नहीं किया जा सकता कि मामले के साक्ष्यों पर अलग दृष्टिकोण लिया जा सकता है। कोर्ट ने यह देखा कि इस मामले में IPC की धाराओं के तहत किसी भी अपराध का आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है, इसलिए प्रतिवादी को वायुसेना अधिनियम की धाराओं 71, 45, और 65 के तहत अपराध के लिए दंडित नहीं किया जा सकता।
SUPREME COURT: उच्च न्यायालय के फैसले का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने सशस्त्र बल अधिकरण द्वारा दिए गए फैसले के विभिन्न पहलुओं का गहराई से विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि अधिकरण का निर्णय कानूनी दृष्टि से बिल्कुल उचित था। कोर्ट ने इस मामले में साक्ष्यों की कमी और तथ्यों की अनुपस्थिति के आधार पर यह निर्णय लिया कि अभियोजन पक्ष ने प्रतिवादी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित करने में असफलता पाई।
अदालत ने यह भी देखा कि बरी का आदेश देने का कारण यह था कि अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत किए गए साक्ष्य पूरी तरह से आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि साक्ष्यों के आधार पर इस मामले में आरोपियों को दोषमुक्त करना उचित था, क्योंकि अभियोजन पक्ष ने यह साबित नहीं कर पाया कि प्रतिवादी ने मृतक की मृत्यु का कारण बनने वाला कोई कार्य किया हो।
अदालत ने जोर देकर कहा कि न्यायिक प्रक्रिया में बरी का आदेश निर्दोषता की अवधारणा को और मजबूत बनाता है, और यह न्याय का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि जब तक किसी आरोपी के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य नहीं हों, तब तक उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
SUPREME COURT: निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई के बाद अपील को खारिज कर दिया और AFT के फैसले को बरकरार रखा। कोर्ट ने कहा कि चूंकि IPC के तहत आरोपों को साबित नहीं किया जा सका, इसलिए प्रतिवादी को वायुसेना अधिनियम की धाराओं के तहत भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि बरी के आदेश को बदलने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए गए थे, और सिर्फ संभावित दृष्टिकोणों के आधार पर दोषसिद्धि को पुनर्स्थापित नहीं किया जा सकता।
मामला शीर्षक: यूनियन ऑफ इंडिया बनाम विंग कमांडर एम.एस. मंडेर (न्यूट्रल संदर्भ: 2024 INSC 842)
इस निर्णय से यह साबित होता है कि अदालतें दोषमुक्ति के आदेश को निर्दोषता की धारणा के रूप में मान्यता देती हैं और यह सिद्धांत भारत में न्यायिक प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है।