Interpretation of Article 212(1): सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि ‘विधायी निर्णय’ और ‘विधानमंडल में कार्यवाही’ के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है।
संविधान के अनुच्छेद 212(1) के तहत केवल ‘विधानमंडल में कार्यवाही’ को ही सुरक्षा प्राप्त है, जबकि ‘विधायी निर्णयों’ की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार विधान परिषद द्वारा आरजेडी एमएलसी सुनील कुमार सिंह को निष्कासित किए जाने के निर्णय को अस्वीकार कर दिया।
Interpretation of Article 212(1): न्यायालय द्वारा अस्वीकार किया गया तर्क
यह विवाद तब उत्पन्न हुआ जब बिहार विधान परिषद ने सुनील कुमार सिंह को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी के कारण निष्कासित कर दिया। सिंह ने इस निष्कासन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जहां विधान परिषद ने अनुच्छेद 212(1) का हवाला देते हुए याचिका को स्थिरता विहीन घोषित करने की मांग की।
विधान परिषद का तर्क था कि आचार समिति द्वारा किया गया निर्णय संविधान के अनुच्छेद 212(1) के तहत सुरक्षित है, जो विधानमंडल की प्रक्रियात्मक अनियमितताओं की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि विधानमंडल की कार्रवाई, यदि यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, तो उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इन दो अवधारणाओं को अलग-अलग परिभाषित किया:
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विधानमंडल में कार्यवाही
यह वह प्रक्रिया है जो सदन में किसी विधायी प्रस्ताव पर विचार-विमर्श, बहस, संशोधन और निर्णय तक पहुंचने के लिए अपनाई जाती है। इसमें:
- औपचारिक कदम,
- बहस,
- प्रस्ताव,
- संशोधन और विचार-विमर्श शामिल हैं।
संविधान का अनुच्छेद 212(1) ऐसी कार्यवाही को न्यायिक पुनर्विचार से सुरक्षित करता है। इसलिए, यदि किसी प्रक्रिया में अनियमितता पाई जाती है, तो भी न्यायालय इसे चुनौती नहीं दे सकता।
विधायी निर्णय
यह विधायी प्रक्रिया की परिणति होती है, यानी सदन द्वारा किसी मुद्दे पर लिया गया अंतिम निर्णय।
- यह सदन की औपचारिक अभिव्यक्ति होती है।
- यह कानून निर्माण या किसी विशेष विषय पर अंतिम निर्णय को प्रतिबिंबित करता है।
- इसे न्यायिक पुनर्विचार से मुक्त नहीं रखा जा सकता।
संविधान के तहत न्यायालयों की शक्ति
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान निर्माताओं का उद्देश्य यह नहीं हो सकता था कि “संवैधानिक न्यायालयों को विधानमंडल की कार्रवाइयों की वैधता की जांच करने से पूरी तरह रोका जाए, खासकर जब वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती हों।” न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि आचार समिति की कार्रवाई न तो ‘विधानमंडल में कार्यवाही’ का हिस्सा थी और न ही ‘विधायी निर्णय’ के बराबर थी।
फैसले के प्रभाव
- विधायी निकायों की सीमाएं निर्धारित हुईं: यह फैसला स्पष्ट करता है कि विधायी निकायों के निर्णयों की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा: अगर किसी विधायी निर्णय से नागरिकों के मौलिक अधिकार प्रभावित होते हैं, तो न्यायालय उनकी जांच कर सकता है।
- संवैधानिक सर्वोच्चता की पुष्टि: न्यायालय ने दोहराया कि न्यायिक समीक्षा विधायी प्रभुत्व पर अतिक्रमण नहीं है, बल्कि संवैधानिक सर्वोच्चता बनाए रखने का एक आवश्यक साधन है।
- प्रक्रियात्मक और प्रशासनिक कार्य अलग हुए: फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि प्रशासनिक कार्य, चाहे वे विधायी निकायों द्वारा ही किए गए हों, न्यायिक पुनर्विचार के अधीन होंगे।
अदालत द्वारा उद्धृत अन्य फैसले
न्यायालय ने आशीष शेलार बनाम महाराष्ट्र विधानसभा के मामले का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि प्रशासनिक कार्य, भले ही वे विधायी निकायों या उनकी समितियों द्वारा किए गए हों, यदि वे किसी व्यक्ति के अधिकारों को प्रभावित करते हैं, तो वे न्यायालय की समीक्षा के अधीन होंगे।
विधायी निर्णयों की न्यायिक समीक्षा
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इस निर्णय से यह स्पष्ट हो गया कि विधायी निकायों को पूरी तरह से न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं किया जा सकता। यदि उनके निर्णय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, तो संवैधानिक न्यायालय उनकी जांच कर सकते हैं।
केस टाइटल: सुनील कुमार सिंह बनाम बिहार विधान परिषद और अन्य, डब्ल्यू.पी.(सी) नंबर 530/2024
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