IPC 302 से दोषमुक्त: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 भाग II के तहत सुनाई सजा

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By headlineslivenews.com

IPC 302 से दोषमुक्त: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 भाग II के तहत सुनाई सजा

IPC 302 से दोषमुक्त: नई दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक बेहद संवेदनशील और जटिल मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें एक

IPC 302 से दोषमुक्त: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 भाग II के तहत सुनाई सजा

IPC 302 से दोषमुक्त: नई दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक बेहद संवेदनशील और जटिल मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें एक मां को अपनी दो बेटियों की हत्या के मामले में दी गई उम्रकैद की सजा को घटा दिया गया।

IPC 302 से दोषमुक्त: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 भाग II के तहत सुनाई सजा
IPC 302 से दोषमुक्त: सुप्रीम कोर्ट ने धारा 304 भाग II के तहत सुनाई सजा

कोर्ट ने यह माना कि महिला ने अपराध के समय किसी “अदृश्य प्रभाव” के तहत यह कृत्य किया और उसकी मानसिक स्थिति स्पष्ट रूप से अस्थिर थी। इसलिए कोर्ट ने महिला को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (हत्या) से दोषमुक्त करते हुए धारा 304 (भाग II) के तहत गैर इरादतन हत्या का दोषी माना और सजा को उसी अनुरूप तय किया।

IPC 302 से दोषमुक्त: मां ने की मासूम बेटियों की हत्या कोर्ट ने सुनाई उम्रकैद

यह मामला छत्तीसगढ़ का है जहां 2016 में एक महिला चुन्नी बाई को अपनी 3 और 5 साल की दो बेटियों की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था। ट्रायल कोर्ट ने उसे IPC की धारा 302 के तहत दोषी मानते हुए आजीवन कारावास और 1000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई थी। महिला ने कोर्ट के समक्ष यह दलील दी थी कि वह “किसी अदृश्य शक्ति के प्रभाव” में थी और उसने होश में रहते हुए यह कृत्य नहीं किया।

ट्रायल कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया और कहा कि महिला द्वारा अपनी दोनों बेटियों पर जानबूझकर हमला किया गया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। हाईकोर्ट ने भी ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद महिला ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दाखिल की।

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सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?

सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एनके सिंह की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने पाया कि महिला लगभग 9 साल और 10 महीने से हिरासत में थी, जबकि IPC की धारा 304 (भाग II) के तहत अधिकतम सजा 10 साल है। इस आधार पर महिला को तुरंत रिहा करने का निर्देश दिया गया।

कोर्ट की खास टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई अहम कानूनी और मानवीय पहलुओं को छुआ, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है मानसिक अस्थिरता के आधार पर “इरादे की अनुपस्थिति” को कानूनी रूप से संदेह का लाभ देना।

पीठ ने कहा,

“हालांकि यह साबित नहीं हुआ कि महिला धारा 84 के तहत ‘विक्षिप्त’ थी, लेकिन परिस्थितियों से यह स्पष्ट है कि उसने अपने बच्चों की हत्या किसी मकसद के तहत नहीं की थी, बल्कि वह मानसिक रूप से अस्थिर थी। इस प्रकार, इरादे के अभाव में धारा 302 के तहत सजा नहीं दी जा सकती।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि महिला ने हत्या के बाद न तो अपराध स्थल से भागने की कोशिश की और न ही किसी प्रकार की योजना का संकेत दिया। वह बार-बार यही कहती रही कि उसने अपने बच्चों को मार दिया। कोर्ट ने इसे “पागलपन की सीमा पर स्थित मानसिक स्थिति” करार दिया।

IPC 302 से दोषमुक्त

अदृश्य प्रभाव का मतलब क्या है?

हालांकि महिला ने ‘अदृश्य प्रभाव’ की बात की, लेकिन कोर्ट ने माना कि इसका कोई वैज्ञानिक या कानूनी आधार स्पष्ट रूप से नहीं रखा गया। फिर भी, कोर्ट ने ग्रामीण परिवेश, महिला की शिक्षा और सामाजिक स्थिति को देखते हुए यह माना कि वह अपने मानसिक हालात को कानूनी भाषा में स्पष्ट नहीं कर सकी।

कोर्ट ने कहा:

“यह माना जा सकता है कि अपराध करते समय वह किसी अस्थायी मानसिक विकार से ग्रसित थी, जो उसकी निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित कर रहा था। ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वे स्किजोफ्रेनिया या द्विध्रुवीय विकार जैसी मानसिक बीमारियों के बारे में जानती हों।”

धारा 84 के तहत क्यों नहीं मिला लाभ?

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि IPC की धारा 84 का लाभ केवल तब मिलता है जब यह प्रमाणित किया जा सके कि आरोपी अपराध के समय मानसिक रूप से विक्षिप्त था और उसे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या कर रहा है और वह कार्य गलत है। इस मामले में, ऐसे निर्णायक चिकित्सा प्रमाण मौजूद नहीं थे। इसलिए कोर्ट ने धारा 84 के बजाय केवल “इरादे के संदेह” के आधार पर धारा 304 भाग II के तहत दोष तय किया।

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न्यायालय की संवेदनशील दृष्टि

इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय समाज की सांस्कृतिक संवेदनाओं को भी ध्यान में रखा। कोर्ट ने कहा:

“भारतीय समाज में मां और बच्चे का संबंध सबसे पवित्र माना जाता है। ‘पूत कपूत सुने बहुतेरे, माता सुनी न कु माता’ जैसी कहावतें हमारे सामाजिक ताने-बाने का हिस्सा हैं। इस पृष्ठभूमि में, एक मां द्वारा अपनी ही संतानों की हत्या करना सामान्य मानवीय अनुभवों के विपरीत है और यह संकेत देता है कि अपराध करते समय उसकी मानसिक स्थिति सामान्य नहीं थी।”

न्यायिक प्रणाली के लिए एक दिशा

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए निचली अदालतों को यह भी मार्गदर्शन दिया कि जब कोई अभियुक्त अपनी मानसिक स्थिति का हवाला देता है, तो न्यायालय को साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत गवाहों से ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए जो सत्य तक पहुंचने में मदद करें।

कोर्ट ने यह कहा:

“अभियुक्त चाहे चुप भी रहे, तब भी न्यायालय का दायित्व है कि वह यह सुनिश्चित करे कि अपराध न केवल भौतिक रूप से, बल्कि मानसिक दृष्टिकोण से भी संदेह से परे सिद्ध हुआ है।”

न्यायिक विवेक का उदाहरण बना सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली में ‘मानवता और न्याय’ के संतुलन का एक बेहतरीन उदाहरण बनकर सामने आया है। जहां एक ओर अदालत ने कानूनी सीमाओं का पालन करते हुए महिला को IPC की धारा 84 के तहत राहत नहीं दी, वहीं दूसरी ओर उसकी अस्थायी मानसिक अस्थिरता को संदेह के लाभ के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार यह फैसला आने वाले समय में मानसिक स्वास्थ्य, कानून और न्याय की बहस को एक नई दिशा देगा।

केस शीर्षक: चुन्नी बाई बनाम छत्तीसगढ़ राज्य
याचिका संख्या: विशेष अनुमति याचिका (सीआरएल) 13119/2024
पीठ: जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस एनके सिंह
महत्वपूर्ण धाराएं: IPC की धारा 302 → धारा 304 भाग II