SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि जब विवाह का अपूरणीय टूटना हो जाता है, तो यह तलाक के लिए पर्याप्त आधार बन जाता है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि पति-पत्नी को एक साथ रहने के लिए मजबूर करना न केवल कोई उद्देश्य पूरा नहीं करता, बल्कि इससे उनके दुख में और वृद्धि होती है।
इस मामले में न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए एक सिविल अपील पर सुनवाई की, जिसमें पत्नी ने पति के खिलाफ तलाक की याचिका का विरोध किया था। उच्च न्यायालय ने पति की अपील को स्वीकार करते हुए तलाक का आदेश दिया था।
यह मामला विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें विवाह के टूटने के बाद दोनों पक्षों के बीच कई वर्षों तक कोई समाधान नहीं निकला और उनकी जिंदगियों में आगे बढ़ने की आवश्यकता थी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर अपने फैसले में यह भी कहा कि यदि एक विवाह पहले ही टूट चुका है और दोनों पक्षों के बीच कोई संबंध नहीं बचा है, तो इसे मजबूरी नहीं कहा जा सकता। इसके बजाय, इसे एक नई दिशा की आवश्यकता है, जहां दोनों पक्ष अपनी ज़िन्दगी के नए अध्याय की शुरुआत कर सकें।
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SUPREME COURT: मामला और तथ्य
यह मामला एक दंपत्ति के बीच लंबे समय से चल रहे वैवाहिक विवाद पर आधारित था। 2002 में विवाह करने के बाद, पत्नी और पति अलग-अलग स्थानों पर रहने लगे थे। पत्नी ने चंडीगढ़ में एक कंपनी में इंजीनियर के रूप में काम करना शुरू किया, जबकि पति उसी कंपनी में कार्यरत था।
कुछ महीनों बाद, पत्नी गर्भवती हो गई और उसे अपने माता-पिता के घर जाने की आवश्यकता पड़ी। 2003 में उसने एक लड़की को जन्म दिया और बाद में, पति ने पत्नी से अनुरोध किया कि वह अपने वैवाहिक घर वापस लौटे, लेकिन पत्नी ने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद पति ने पत्नी से विवाहिक अधिकारों की पुनःस्थापना के लिए एक कानूनी नोटिस भेजा, जिस पर पत्नी ने प्रतिवाद किया।
यहां से यह मामला और जटिल हो गया। 2010 में पति ने पत्नी के खिलाफ क्रूरता का आरोप लगाते हुए तलाक की याचिका दायर की, जिसे पहले खारिज कर दिया गया था। हालांकि, बाद में उच्च न्यायालय ने पति की अपील को स्वीकार कर तलाक का आदेश दिया। पत्नी ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्न बी. वराले शामिल थे, ने इस मामले में तलाक को मंजूरी दी और इसके पीछे के कानूनी और भावनात्मक तर्कों को विस्तार से समझाया।
न्यायालय ने कहा कि जब विवाह पूरी तरह से टूट चुका है और दोनों पक्षों के बीच सुलह के कोई प्रयास सफल नहीं हो पाए, तो इसे एक मृत विवाह माना जाता है। ऐसे में दोनों पक्षों को एक साथ रहने के लिए मजबूर करना केवल उनके मानसिक और भावनात्मक तनाव को और बढ़ाता है।
अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों में यह माना जाता है कि विवाह की संस्था को केवल इसलिए बनाए रखना, क्योंकि कानूनी दृष्टिकोण से यह जोड़ा हुआ है, बिल्कुल सही नहीं है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि विवाह में कोई स्थायी अंतराल है और दोनों पक्ष अलग-अलग रह रहे हैं, तो यह स्पष्ट संकेत है कि विवाह अब बचने योग्य नहीं है। इस प्रकार के मामलों में आगे बढ़ना और तलाक को स्वीकृति देना ही उचित कदम होता है।
SUPREME COURT: अलिमनी और भरण-पोषण का आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश दिया। न्यायालय ने पत्नी को स्थायी भरण-पोषण के रूप में 50 लाख रुपये की राशि देने का आदेश दिया। इस राशि का उद्देश्य पत्नी की वित्तीय स्वतंत्रता और सम्मान की रक्षा करना था, ताकि वह तलाक के बाद सम्मानपूर्वक और स्वतंत्र रूप से अपना जीवन जी सके।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि तलाक के बाद, वित्तीय भरण-पोषण का उद्देश्य किसी एक पक्ष को दंडित करना नहीं होता, बल्कि उसे एक dignified जीवन जीने के लिए मदद देना होता है।
इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने 50 लाख रुपये की राशि को बेटी के भविष्य के लिए भी निर्धारित किया, ताकि वह अपनी शिक्षा और विवाह संबंधी खर्चों को पूरा कर सके। इस निर्णय में न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया कि तलाक के कारण बच्चों की भलाई को नजरअंदाज न किया जाए और उन्हें भी उचित समर्थन प्राप्त हो।
SUPREME COURT: मामले का निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि जब विवाह का अपूरणीय टूटना हो जाता है और किसी भी सुलह की संभावना नहीं बची रहती, तो तलाक के लिए यह एक पर्याप्त और मजबूत आधार बनता है। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में किसी भी प्रकार की वित्तीय व्यवस्था को भी ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाता है, ताकि दोनों पक्षों को उनके अधिकार मिल सकें और वे आगे बढ़ सकें।
इस फैसले में यह भी देखा गया कि विवाह के टूटने का असर केवल पति-पत्नी तक ही सीमित नहीं रहता, बल्कि उनके बच्चों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
अदालत ने यह भी कहा कि इस प्रकार के मामलों में एकमुश्त मुआवजा देने से न केवल न्याय की प्राप्ति होती है, बल्कि भविष्य में किसी भी प्रकार की कानूनी लड़ाई को समाप्त किया जा सकता है। इस फैसले ने भारतीय न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास को और मजबूत किया है, क्योंकि यह व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता और सम्मान के अधिकार की रक्षा करता है।
मामला: ABC बनाम XYZ (न्युट्रल संदर्भ: 2024 INSC 1033)
वकील: अपीलकर्ता: वरिष्ठ अधिवक्ता वी. मोहना, और अन्य, प्रतिवादी: वरिष्ठ अधिवक्ता हरिप्रिया पद्मनाभन, और अन्य