न्यायिक निष्पक्षता को बढ़ावा: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाते हुए देशभर के उपभोक्ता आयोगों के सदस्यों को समान वेतन और भत्ते प्रदान करने का निर्देश दिया है।
कोर्ट का यह निर्णय उपभोक्ता अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ-साथ उपभोक्ता आयोगों की कार्यक्षमता और निष्पक्षता को भी मजबूत करेगा।
यह फैसला न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुयान की पीठ ने पारित किया, जिन्होंने उपभोक्ता फोरम के सदस्यों के वेतन और सेवा शर्तों में असमानता को लेकर स्वतः संज्ञान (suo motu) में मामला दर्ज किया था। कोर्ट ने पाया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत विभिन्न राज्यों द्वारा बनाए गए नियमों में भारी अंतर है, जिससे समान कार्य के लिए वेतन में असमानता उत्पन्न हो रही है।
न्यायिक निष्पक्षता को बढ़ावा: मॉडल नियम और राज्यों के भिन्न नियमों में टकराव
केंद्र सरकार ने 2020 में उपभोक्ता संरक्षण (राज्य आयोग और जिला आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तें) मॉडल नियम अधिसूचित किए थे। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया कि कई राज्यों ने अधिनियम की धारा 102 के तहत अपने स्वयं के नियम बनाए हैं, जिससे वेतन और भत्तों में भारी भिन्नता आ गई है।
कोर्ट ने कहा, “कुछ राज्यों में आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों को बहुत कम पारिश्रमिक मिल रहा है, जो उनके कर्तव्यों के प्रभावी निर्वहन में बाधा बन रहा है।” न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब तक उन्हें उचित वेतन और सुविधाएं नहीं दी जाएंगी, तब तक वे आयोग की जिम्मेदारियों को गंभीरता से नहीं निभा पाएंगे।
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कोर्ट द्वारा पारित निर्देशों की प्रमुख बातें
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित निर्देश जारी किए:
- राज्य आयोग के सदस्य: उन्हें द्वितीय राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग (Second National Judicial Pay Commission) द्वारा निर्धारित सुपर टाइम स्केल में जिला न्यायाधीश के बराबर वेतन और सभी भत्ते मिलेंगे। इसके साथ ही मॉडल नियमों के नियम 7, 8 और 9 (जैसे मकान किराया, परिवहन, चिकित्सा आदि) उन पर लागू नहीं होंगे।
- जिला आयोग के अध्यक्ष: इन्हें भी सुपर टाइम स्केल पर जिला न्यायाधीश के समकक्ष वेतन और भत्ते मिलेंगे। उनके ऊपर भी उपरोक्त नियम लागू नहीं होंगे।
- जिला आयोग के सदस्य: इन्हें चयन ग्रेड में जिला न्यायाधीश के बराबर वेतन और भत्ते मिलेंगे, और ये भी मॉडल नियमों के नियम 7, 8, 9 और 11 से प्रभावित नहीं होंगे।
- वेतन सुरक्षा: जो सदस्य पहले से ज्यादा वेतन पा रहे हैं, उनका वेतन संरक्षित किया जाएगा। हालांकि, यदि वे पहले से पेंशन प्राप्त कर रहे हैं, तो वह वेतन से घटा दिया जाएगा।
- पूर्णकालिक सदस्य मान्यता: सभी सदस्य, चाहे वे पूर्णकालिक हों, अंशकालिक हों या उनकी न्यायिक/गैर-न्यायिक पृष्ठभूमि हो – उन्हें समान वेतन और भत्ते की दृष्टि से पूर्णकालिक सदस्य माना जाएगा।
- अधिक वेतन देने वाले राज्य: यदि कोई राज्य पहले से अधिक वेतन और भत्ते दे रहा है, तो उसे बनाए रखा जाएगा।
- प्रभावी तिथि: यह नया वेतनमान 20 जुलाई 2020 से प्रभावी माना जाएगा – वही तिथि जब मॉडल नियम अधिसूचित किए गए थे।
- बकाया भुगतान: कोर्ट ने आदेश दिया है कि सभी बकाया राशि इस आदेश की तिथि से छह महीने के भीतर संबंधित अधिकारियों को प्रदान की जाए।
- संशोधन की स्वतंत्रता: राज्यों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे अपने मौजूदा नियमों में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 की धारा 102 के तहत आवश्यक संशोधन करें ताकि वे सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप हों।
- अगली सुनवाई की तिथि: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को 22 सितंबर 2025 को अगली सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया है, जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा किए गए अनुपालन की रिपोर्ट पेश की जाएगी।
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अहमियत और संभावित प्रभाव
यह निर्णय न केवल उपभोक्ता आयोगों की कार्यक्षमता में सुधार लाएगा, बल्कि पूरे देश में इन संस्थाओं को एक समान दर्जा और अधिकार प्रदान करेगा। इससे आयोगों में कार्य करने वाले न्यायिक अधिकारियों और सदस्यों की सेवा शर्तों में समानता आएगी, जिससे उनका मनोबल भी बढ़ेगा।
साथ ही, उपभोक्ताओं को भी इसका लाभ मिलेगा, क्योंकि अब आयोग अधिक कुशलता और निष्पक्षता से मामलों का निस्तारण कर पाएंगे। कोर्ट ने दोहराया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का उद्देश्य उपभोक्ता हितों की रक्षा और विवादों के प्रभावी समाधान को सुनिश्चित करना है। इस दिशा में यह निर्णय एक मील का पत्थर साबित होगा।
सभी राज्यों में उपभोक्ता आयोगों के वेतन होंगे अब समान
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश देश में न्यायिक प्रणाली की पारदर्शिता और समानता को बढ़ावा देने वाला है। यह सुनिश्चित करता है कि उपभोक्ता आयोगों के सभी अध्यक्ष और सदस्य, चाहे वे किसी भी राज्य या क्षेत्र से हों, उन्हें समान और न्यायसंगत पारिश्रमिक मिलेगा। यह न केवल एक संवैधानिक दायित्व की पूर्ति है, बल्कि उपभोक्ता अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता का भी प्रतीक है।