rajasthan high court: राजस्थान हाईकोर्ट ने दो व्यक्तियों को जमानत देने से इनकार कर दिया है, जिन पर आरोप है कि उन्होंने 40-50 सशस्त्र लोगों के समूह के साथ मिलकर शिकायतकर्ता के घर में जबरन घुसपैठ की और उसके निवास स्थान पर एक मृत लड़की के शव को बिना उचित धार्मिक संस्कारों के जला दिया। न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रकाश सोनी की एकल पीठ ने इसे न केवल अत्यधिक अपमानजनक बताया, बल्कि इसे एक गंभीर अपराध, यानी अपवित्रीकरण का कार्य माना।
rajasthan high court: पृष्ठभूमि
यह मामला राजस्थान के एक आदिवासी समुदाय से जुड़ा है, जहां मृत लड़की के परिवार वालों ने एक प्राचीन प्रथा “मौताना” का पालन किया। मौताना प्रथा के अनुसार, जब किसी व्यक्ति की आकस्मिक या दुर्घटनावश मृत्यु हो जाती है, तो मृतक के परिवार को दोषी माने गए पक्ष से मुआवजा या संतुष्टि प्राप्त करने का अधिकार होता है।
इस विशेष मामले में, शिकायतकर्ता का बेटा एक जीप दुर्घटना में शामिल था, जिससे याचिकाकर्ताओं की बेटी की मृत्यु हो गई थी। इस दुर्घटना को आधार बनाकर याचिकाकर्ताओं ने इस विवादित प्रथा का पालन करते हुए शिकायतकर्ता के घर में घुसपैठ की और लड़की के शव को वहीं जला दिया।
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याचिकाकर्ताओं की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने पाया कि इस मामले में आरोपितों का कार्य सिर्फ प्रथा का पालन नहीं था, बल्कि उन्होंने कानून का गंभीर उल्लंघन किया है। अदालत ने यह भी कहा कि बिना उचित धार्मिक संस्कारों के किसी के घर के अंदर शव को जलाना अत्यधिक अपमानजनक है और इसे एक आपराधिक कृत्य के रूप में देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह कार्य अपवित्रीकरण की श्रेणी में आता है, क्योंकि मृत शरीर के साथ ऐसा व्यवहार सम्मान और गरिमा के साथ जुड़ी सामान्य धार्मिक और सामाजिक परंपराओं के खिलाफ था।
rajasthan high court: आरोपियों का पक्ष
याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता प्रेम दयाल बोहरा ने तर्क दिया कि उनके मुवक्किलों ने जो किया, वह आदिवासी प्रथा के अनुसार था। उनका कहना था कि मौताना और चढ़ोतरा जैसी प्रथाओं के तहत मृतक के परिवार के पास यह अधिकार होता है कि वे मृत शरीर को उस व्यक्ति के घर के सामने रखें, जिसे वे मृत्यु के लिए जिम्मेदार मानते हैं।
याचिकाकर्ताओं ने कहा कि उनका उद्देश्य सामाजिक परंपराओं का पालन करना था, न कि किसी को नुकसान पहुंचाना या अपमान करना। उन्होंने तर्क दिया कि आदिवासी समाज में मौताना प्रथा एक स्वीकृत सामाजिक प्रक्रिया है, जो समाज की सहमति से चलती है। इसके तहत मृतक के परिवार को मुआवजा देने की मांग की जाती है।
दूसरी ओर, प्रतिवादी के अधिवक्ता शरवन सिंह राठौड़ ने अदालत के समक्ष दलील दी कि याचिकाकर्ताओं ने जिस प्रकार से घर में घुसपैठ की और मृत लड़की के शव को जलाया, वह कानूनी और सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से गलत था। उन्होंने कहा कि किसी भी प्रथा या परंपरा के नाम पर इस तरह का कार्य न्यायसंगत नहीं हो सकता। राठौड़ ने यह भी कहा कि इस घटना में 40-50 सशस्त्र लोगों की भागीदारी ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि यह एक सुनियोजित अपराध था, जिसका उद्देश्य शिकायतकर्ता को धमकाना और दबाव में लाना था।
उन्होंने कोर्ट से आग्रह किया कि इस मामले में याचिकाकर्ताओं को जमानत न दी जाए, क्योंकि इससे गवाहों पर दबाव डाला जा सकता है और न्याय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है।
rajasthan high court: न्यायिक टिप्पणी
न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रकाश सोनी ने इस मामले में एक कठोर दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा, “शिकायतकर्ता के निवास स्थान पर बिना उचित संस्कार किए मृत शरीर का दाह संस्कार करना और इस तरह के आपराधिक तरीके से उसका उपयोग करना न केवल अत्यधिक अपमानजनक है बल्कि यह अपवित्रीकरण का कार्य भी है।
उन्होंने आगे कहा, “इस तरह की प्रथा के नाम पर किए गए कार्यों को सामाजिक या धार्मिक परंपरा का नाम देकर न्यायोचित ठहराना उचित नहीं हो सकता। किसी भी समाज में, चाहे वह आदिवासी हो या अन्य, किसी व्यक्ति के निवास स्थान पर इस प्रकार से घुसपैठ करना और वहां एक शव को जलाना अत्यधिक गंभीर अपराध है।”
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह प्रथा, भले ही एक सामाजिक या धार्मिक प्रक्रिया के रूप में मानी जाती हो, लेकिन इसके नाम पर कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कानून के तहत इस तरह की हिंसा या जबरन घुसपैठ की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह घटना केवल एक परंपरा का पालन करने से परे है; यह एक संगठित अपराध की तरह प्रतीत होती है, जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल थे। इस तरह के मामलों में कानून को कड़ा रुख अपनाना चाहिए, ताकि सामाजिक और कानूनी व्यवस्थाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके।
rajasthan high court: निर्णय
कोर्ट ने जमानत याचिका को खारिज करते हुए कहा कि इस मामले में आरोपितों की जमानत पर रिहाई से गवाहों पर दबाव डालने या धमकी देने की संभावना है। न्यायमूर्ति सोनी ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि इस प्रकार के गंभीर अपराधों में यदि आरोपितों को रिहा किया जाता है, तो इससे न केवल न्याय प्रक्रिया में बाधा आ सकती है, बल्कि समाज में कानून के प्रति विश्वास भी कम हो सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी समाज में इस प्रकार के आपराधिक कार्यों को सहन नहीं किया जा सकता, चाहे वह किसी भी प्रथा या परंपरा के नाम पर किया गया हो।
राजस्थान हाईकोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट संदेश दिया है कि किसी भी प्रथा या परंपरा के नाम पर किए गए ऐसे आपराधिक कार्यों को कानून के दायरे में लाकर देखा जाएगा। न्यायालय ने समाज को यह संकेत दिया कि चाहे किसी भी समुदाय की प्रथा हो, कानून से ऊपर कोई नहीं है। इस प्रकार के मामलों में सामाजिक न्याय और कानून की प्रक्रिया को सुरक्षित रखना अत्यंत आवश्यक है।
मामला शीर्षक: रूपा राम और अन्य बनाम राज्य राजस्थान, [2024:RJ-JD:41054]