SC WEEKLY ROUND UP: पिछले सप्ताह (12 मई से 16 मई 2025) के दौरान भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कई महत्वपूर्ण संवैधानिक, आपराधिक, प्रशासनिक और वाणिज्यिक मामलों में फैसले सुनाए।
ये फैसले न सिर्फ मौजूदा कानूनी ढांचे की व्याख्या करते हैं, बल्कि न्यायिक सिद्धांतों और प्रक्रिया में स्पष्टता भी प्रदान करते हैं। आइए, इन महत्वपूर्ण आदेशों और निर्णयों पर एक क्रमबद्ध दृष्टि डालते हैं।
1. SC WEEKLY ROUND UP: सजा की अपील में वृद्धि का अधिकार नहीं – CrPC धारा 386(बी)(iii) की व्याख्या
मामला: सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि दोषी व्यक्ति सजा के खिलाफ अपील करता है और राज्य या पीड़ित द्वारा कोई क्रॉस अपील दाखिल नहीं की गई है, तो अपीलीय न्यायालय को सजा बढ़ाने का अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि ऐसा करना न्यायिक निष्पक्षता और निष्पादन की वैधानिक योजना का उल्लंघन है। CrPC की धारा 386(बी)(iii) के तहत ऐसी वृद्धि तभी संभव है जब राज्य या पीड़ित इस हेतु अपील करें।
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2. जाति प्रमाण पत्र का विशिष्ट प्रारूप अनिवार्य
मामला: मोहित कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाया कि किसी भी भर्ती प्रक्रिया में अपेक्षित विशिष्ट प्रारूप में जाति प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करना अनिवार्य है। केवल उस जाति से संबंधित होने का दावा करना पर्याप्त नहीं है। यह निर्णय उस याचिकाकर्ता को राहत देने से इनकार करता है, जिसने यूपी पुलिस भर्ती में केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित OBC प्रमाण-पत्र प्रस्तुत किया था, जबकि राज्य द्वारा निर्धारित प्रारूप अपेक्षित था।
3. NRI फीस को राज्य कोष में स्थानांतरित करने का आदेश अवैध
मामला: केरल राज्य बनाम केएमसीटी मेडिकल कॉलेज
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि राज्य की प्रवेश और फीस विनियामक समिति NRI कोटा से एकत्रित फीस को राज्य कोष में स्थानांतरित करने का निर्देश नहीं दे सकती। यह फीस स्व-वित्तपोषित मेडिकल कॉलेज अपने पास रख सकते हैं। अदालत ने केरल सरकार को इस आदेश के तहत जमा की गई राशि कॉलेजों को लौटाने का निर्देश दिया।
4. CERC की शक्तियाँ न्यायिक नहीं बल्कि नियामक प्रकृति की
जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय विद्युत विनियामक आयोग (CERC) की शक्तियाँ न्यायिक नहीं, बल्कि नियामक हैं। CERC को केस-विशिष्ट आदेश देने का अधिकार है, भले ही कोई सामान्य नियम न हो, जिससे ट्रांसमिशन योजना को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके।
5. पूर्व-स्थापना मध्यस्थता अनिवार्य – लेकिन प्रभाव 20 अगस्त 2022 से
मामला: पाटिल ऑटोमेशन बनाम रखेजा इंजीनियर्स
सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12ए के तहत पूर्व-स्थापना मध्यस्थता अनिवार्य है। हालांकि, यह आवश्यकता केवल 20 अगस्त 2022 के बाद दाखिल वादों पर लागू होगी। इससे पूर्व दाखिल मामलों को न्यायिक अड़चनों से बचाने के लिए यह राहत दी गई है। अदालत ने कहा कि मीडिएशन की संभावना को देखते हुए पुराने मामलों को स्थगित किया जा सकता है।
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6. आर्बिट्रल अवार्ड केवल अधिकार क्षेत्र की आपत्ति पर रद्द नहीं किया जा सकता
मामला: गायत्री प्रोजेक्ट्स लिमिटेड बनाम मध्य प्रदेश रोड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि मध्यस्थता अधिनियम के तहत दिए गए अवार्ड को केवल इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि मामला मध्य प्रदेश मध्यस्थता अधिनियम, 1983 के तहत आना चाहिए था। अगर संबंधित पक्ष ट्रिब्यूनल के समक्ष समय पर अधिकार क्षेत्र को चुनौती नहीं देते, तो वे बाद में धारा 34 के तहत सिर्फ इस आधार पर अवार्ड को चुनौती नहीं दे सकते।
7. IBC रोक MPID अधिनियम के तहत संपत्ति कुर्की पर लागू नहीं
मामला: NSEL स्कैम
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि दिवाला और दिवालियापन संहिता (IBC) के तहत लगाई गई रोक, महाराष्ट्र डिपॉजिटर्स हित संरक्षण अधिनियम (MPID Act) के तहत संपत्ति कुर्की को प्रभावित नहीं करती। कोर्ट ने कहा कि MPID का उद्देश्य वित्तीय धोखाधड़ी के पीड़ितों की संपत्ति की वसूली को सुनिश्चित करना है, और एक बार संपत्ति सरकार के अधीन हो जाने पर उस पर IBC रोक लागू नहीं होती।
8. गैर-सरकारी व्यक्ति भी भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत दोषी ठहराए जा सकते हैं
मामला: पी. शांति पुगाझेन्थी बनाम राज्य
सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय सुनाया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत कोई गैर-सरकारी व्यक्ति भी दोषी ठहराया जा सकता है, यदि वह सरकारी कर्मचारी को भ्रष्टाचार करने या अवैध संपत्ति इकट्ठा करने में मदद करता है। यह फैसला एक पूर्व सरकारी कर्मचारी की पत्नी को दोषी ठहराने की वैधता को बरकरार रखता है।
9. सीनियर डेजिग्नेशन के लिए अंक आधारित मूल्यांकन रद्द
मामला: जितेंद्र @ कल्ला बनाम राज्य (NCT दिल्ली)
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को सीनियर डेजिग्नेशन प्रक्रिया के लिए लागू अंक आधारित मूल्यांकन प्रणाली को असंवैधानिक ठहराया। अदालत ने हाईकोर्ट को निर्देश दिया कि वे इस संबंध में नियमों में बदलाव करें। यह प्रणाली 2017 और 2023 के इंदिरा जयसिंह फैसलों के बाद विकसित की गई थी, जिसमें उम्मीदवारों को विभिन्न मानदंडों जैसे कि अनुभव, रिपोर्टेड निर्णय, प्रकाशन, और साक्षात्कार पर अंक दिए जाते थे।
न्याय की अवधारणा को सशक्त करते फैसले
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए ये निर्णय भारतीय न्याय प्रणाली की व्याख्या में नई दिशा प्रदान करते हैं। चाहे वह अपील की सीमा हो, भर्ती की शर्तें, फीस की प्रकृति, मध्यस्थता की बाध्यता या भ्रष्टाचार का दायरा—इन सभी मामलों में कोर्ट ने व्यापक विधिक व्याख्या के साथ संविधानिक मूल्यों और न्याय की अवधारणा को मजबूती दी है।
इन निर्णयों का असर न सिर्फ संबंधित पक्षों पर पड़ेगा, बल्कि देश की न्यायिक प्रणाली में सुधार और संतुलन की ओर भी मार्गदर्शन करेगा। आने वाले समय में ये फैसले निचली अदालतों और विधायकों के लिए दिशानिर्देशक साबित हो सकते हैं।