Section 34/37 of the Arbitration Act? सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है

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By headlineslivenews.com

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Section 34/37 of the Arbitration Act? सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों वाली संविधान पीठ ने बुधवार (19 फरवरी) को इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया कि क्या न्यायालयों को मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 और 37 के तहत मध्यस्थ अवार्ड को संशोधित करने का अधिकार है।

Section 34/37 of the Arbitration Act? सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है

यह मुद्दा लंबे समय से बहस का विषय बना हुआ है और इसका सीधा प्रभाव व्यापारिक विवादों के निपटान पर पड़ सकता है।

Section 34/37 of the Arbitration Act? धारा 34 और 37 का कानूनी परिप्रेक्ष्य

धारा 34 मध्यस्थ अवार्ड को रद्द करने के लिए आवेदन करने की रूपरेखा प्रदान करती है। अधिनियम की धारा 37 में ऐसे उदाहरण दिए गए हैं, जहां मध्यस्थ विवादों से संबंधित आदेशों के खिलाफ अपील की जा सकती है। इस संदर्भ में, यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या न्यायालय के पास अवार्ड को संशोधित करने का अधिकार है, या केवल उसे निरस्त करने की शक्ति दी गई है।

सीजेआई संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली इस संविधान पीठ में जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस संजय कुमार, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस केवी विश्वनाथन शामिल हैं।

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सीजेआई संजीव खन्ना के विचार

सुनवाई के दौरान, सीजेआई संजीव खन्ना ने देखा कि विधायिका का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि मध्यस्थता जैसे ‘एक-चरणीय निर्णय’ मॉडल में सुधारात्मक उपाय मौजूद हों। उन्होंने कहा कि मध्यस्थता प्रक्रिया की कमियों को ध्यान में रखते हुए, सुधारात्मक उपाय आवश्यक हैं ताकि पक्षों को न्याय मिल सके। उन्होंने यह भी कहा कि आंशिक रूप से अवार्ड को रद्द करना भी एक प्रकार का संशोधन ही है, और यह न्यायालय की विस्तारित शक्तियों के अंतर्गत आता है।

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न्यायिक व्याख्या धारा 34 के तहत अदालत की सीमाएं

सीनियर वकील सौरभ किरपाल ने इस तर्क के खिलाफ तर्क दिया कि अलग रखना शब्द में धारा 34 के तहत न्यायालय की शक्तियों के उप-समूह के रूप में संशोधन शामिल है। उन्होंने कहा कि भारतीय न्यायशास्त्र में ‘संशोधन शक्तियों’ और ‘अलग रखने की शक्तियों’ की द्विभाजित समझ है।

जस्टिस संजय कुमार ने पूछा कि 1940 के अधिनियम की धारा 15 की सामग्री को ‘1996 के अधिनियम में तस्करी कर लाया गया है’ और धारा 34(2) और धारा 33 के तहत आंशिक रूप से अवार्ड को निरस्त करने का प्रावधान दिया गया है, तो क्या 1996 के अधिनियम में ‘संशोधन’ शब्द की अनुपस्थिति को इतना महत्व दिया जाना चाहिए?

मध्यस्थता अधिनियम की नीति

किरपाल ने जोर देकर कहा कि मध्यस्थता अधिनियम की नीति ‘चाहे जो भी हो’ अवार्ड को बरकरार रखना है। उन्होंने यह भी कहा कि देरी से आर्थिक लागत बढ़ती है और शीघ्र निर्णय लेना आवश्यक होता है।

सीनियर वकील गौरव बनर्जी ने भी इस बात पर जोर दिया कि यदि न्यायालयों को अवार्ड को संशोधित करने की अनुमति दी जाती है, तो इससे विदेशी अधिकार क्षेत्रों में आईसीए पुरस्कार की प्रवर्तनीयता कमजोर हो जाएगी। उन्होंने कहा कि इससे भारत में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के प्रति विश्वास कमजोर हो सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसलों पर विचार

सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णयों में एम हकीम, लार्सन एयर कंडीशनिंग और एसवी समुद्रम के मामलों में यह माना गया था कि मध्यस्थता अधिनियम की धारा 34 या 37 के तहत न्यायालयों को मध्यस्थता अवार्ड को संशोधित करने का अधिकार नहीं है। हालांकि, अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने संशोधित मध्यस्थता अवार्ड को स्वीकार किया था।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए प्रमुख प्रश्न

इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित पांच प्रश्न उठाए:

  1. क्या धारा 34 और 37 के तहत न्यायालय की शक्तियों में मध्यस्थता अवार्ड को संशोधित करने की शक्ति शामिल होगी?
  2. यदि अवार्ड को संशोधित करने की शक्ति उपलब्ध है, तो क्या ऐसी शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है जब अवार्ड रद्द करने योग्य हो और उसके एक हिस्से को संशोधित किया जा सके?
  3. क्या अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी निर्णय को रद्द करने की शक्ति, जो एक बड़ी शक्ति है, में मध्यस्थ निर्णय को संशोधित करने की शक्ति शामिल होगी?
  4. क्या अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी निर्णय को संशोधित करने की शक्ति को अधिनियम की धारा 34 के तहत किसी निर्णय को रद्द करने की शक्ति में शामिल किया जा सकता है?
  5. क्या इस न्यायालय द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णय सही कानून स्थापित करते हैं, या इसमें पुनर्विचार की आवश्यकता है?
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अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता और भारत की स्थिति पर संभावित प्रभाव

सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस निर्णय का प्रभाव भारत में मध्यस्थता प्रक्रिया और व्यापारिक विवादों के निपटान की प्रक्रिया पर पड़ सकता है।

यदि न्यायालयों को संशोधन का अधिकार दिया जाता है, तो इससे मध्यस्थता की प्रभावशीलता प्रभावित हो सकती है, जबकि यदि इसे खारिज किया जाता है, तो विवादों के समाधान की प्रक्रिया में न्यायिक हस्तक्षेप सीमित रहेगा। अब देखना यह होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या निर्णय देती है और इसका व्यावसायिक एवं कानूनी क्षेत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

केस टाइटल: गायत्री बालासामी बनाम मेसर्स आईएसजी नोवासॉफ्ट टेक्नोलॉजीज लिमिटेड | एसएलपी (सी) संख्या 15336-15337/2021

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