SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण से संबंधित मामलों में बाजार मूल्य में सामूहिक वृद्धि का नियम अनिवार्य न होने की बात दोहराई है। यह निर्णय उस अपील की सुनवाई के दौरान आया जिसमें अधिग्रहण की गई भूमि, उस पर लगे फलदार पेड़ और बोरवेल के लिए उचित मुआवजा प्रदान करने के मुद्दे उठाए गए थे।
न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने मामले का अध्ययन करते हुए कहा कि “इस मामले में, संबंधित दस्तावेज़ (एक्सहिबिट 68) के आधार पर सामूहिक वृद्धि की अनुमति नहीं दी गई थी क्योंकि इसी अधिग्रहण के संदर्भ में पूर्व में भी इस वृद्धि का प्रावधान नहीं किया गया था।”
SUPREME COURT: मामला परिचय और पृष्ठभूमि
महाराष्ट्र राज्य सरकार ने विदर्भ सिंचाई विकास निगम के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4 के तहत अधिसूचना जारी करते हुए याचिकाकर्ता की भूमि का अधिग्रहण किया था। भूमि अधिग्रहण अधिकारी ने अधिग्रहीत भूमि के लिए मुआवजे का निर्धारण किया। इसके बाद, याचिकाकर्ता ने सिविल कोर्ट में इस मुआवजे को अपर्याप्त मानते हुए इसे चुनौती दी, और सिविल जज ने याचिकाकर्ता को आंशिक राहत देते हुए अतिरिक्त मुआवजा प्रदान किया।
जेट एयरवेज का भविष्य: नरेश गोयल की जमानत और कंपनी के संकट के बीच की जटिलताएं 2024 !
ONGC के वित्तीय परिणाम: नेट प्रॉफिट बढ़ा, लेकिन रेवेन्यू में कमी आई 2024 !
याचिकाकर्ता ने पुनर्विचार याचिका के माध्यम से यह तर्क दिया कि उन्हें भूमि पर लगे 1824 आवला के पेड़ और बोरवेल के लिए मुआवजा नहीं मिला था। पुनर्विचार याचिका पर सिविल कोर्ट ने कुछ मुआवजा स्वीकृत किया, लेकिन इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने हाईकोर्ट में अपील की।
हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता की आपत्तियों को खारिज करते हुए कहा कि आवला के पेड़ और बोरवेल के लिए दिया गया मुआवजा अवैध था, जिसके खिलाफ याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने मामले में तथ्यों और साक्ष्यों का विस्तार से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि सिविल कोर्ट द्वारा आवला के पेड़ों का मुआवजा इस आधार पर अस्वीकार किया गया कि ये पेड़ नए लगाए गए थे और अधिग्रहण के समय फल नहीं दे रहे थे।
इस बात की पुष्टि हुई कि आवला के पेड़ 2003-2004 में लगाए गए थे, जो भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू होने के बाद का समय था। अदालत ने यह भी देखा कि याचिकाकर्ता ने इन पेड़ों की उपस्थिति और फल देने की स्थिति को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किए थे।
खंडपीठ ने समीक्षा याचिका में प्रस्तुत 2nd जॉइंट मिजरमेंट रिपोर्ट (2nd JMR) पर भी ध्यान दिया, जिसे सबूत के रूप में पेश किया गया था। लेकिन अदालत ने इसे अस्वीकार्य मानते हुए कहा कि यह रिपोर्ट पहले से प्रमाणित साक्ष्यों का हिस्सा नहीं थी और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
अदालत ने कहा कि सिविल कोर्ट ने पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते समय इस रिपोर्ट पर भरोसा करके अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया। पुनर्विचार सुनवाई में कोर्ट को केवल कुछ बिंदुओं पर विचार करने का अधिकार होता है, लेकिन यहां मामला पुनः जांचा गया जो पुनर्विचार के दायरे में नहीं आता।
SUPREME COURT: सामूहिक वृद्धि का सिद्धांत और निर्णय
याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि मुआवजा निर्धारण में 1994 की एक बिक्री डीड का हवाला दिया गया था और 2003 के अधिग्रहण वर्ष के हिसाब से 10% प्रति वर्ष वृद्धि दी गई थी। उनका कहना था कि इस वृद्धि को सामूहिक आधार पर लागू किया जाना चाहिए।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व के रामराव शंकर तापसे मामले का हवाला देते हुए कहा कि “बाजार मूल्य में सामूहिक वृद्धि अनिवार्य नहीं है और यह न्यायिक विवेक पर निर्भर करता है कि इसे लागू किया जाए या नहीं।” अदालत ने स्पष्ट किया कि 10% की वृद्धि को ही पर्याप्त मानते हुए उसे लागू किया गया था और सामूहिक वृद्धि का प्रावधान केवल विशेष मामलों में ही किया जा सकता है।
खंडपीठ ने कहा कि 1994 के बिक्री दस्तावेज़ के आधार पर बाजार मूल्य में 10% वृद्धि को उचित और वैध माना गया है और इस मामले में कोई अनुचितता या मनमानी नहीं की गई है। खंडपीठ ने याचिकाकर्ता की अपील को बिना किसी ठोस आधार के मानते हुए उसे खारिज कर दिया।
इस निर्णय से सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि भूमि अधिग्रहण मामलों में बाजार मूल्य में सामूहिक वृद्धि कोई अनिवार्य नियम नहीं है और इसका निर्णय न्यायालय के विवेक के अनुसार होना चाहिए। इस मामले में अदालत ने याचिकाकर्ता की ओर से प्रस्तुत किए गए साक्ष्यों को अस्वीकार्य मानते हुए अपील को खारिज कर दिया, जिसमें सामूहिक वृद्धि और अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई थी।
SUPREME COURT: प्रकरण का संक्षेप विवरण
मामला: माणिक पांजाबराव कालमेघ बनाम कार्यकारी अभियंता बेम्बला प्रोजेक्ट डिवीजन यवतमाल
केस संख्या: सिविल अपील (एसएलपी (सी) संख्या 004494 – 004495 / 2023)
वकील: याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता अनघा एस. देसाई और प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता आदित्य अनिरुद्ध पांडे एवं ए. सेल्विन राजा
इस निर्णय के साथ, सुप्रीम कोर्ट ने पुनः भूमि अधिग्रहण मामलों में सामूहिक वृद्धि के प्रावधान को आवश्यक मानने से इंकार कर दिया और इसे न्यायालय के विवेक पर छोड़ने की पुष्टि की।