SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश जारी करते हुए कहा कि सत्र न्यायालय, जो महिलाओं और बच्चों के खिलाफ शारीरिक चोट या हिंसा से जुड़े मामलों की सुनवाई करते हैं, उन्हें दोषसिद्धि या बरी करने के फैसले के दौरान पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश देना चाहिए।
यह आदेश विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) की सुनवाई के दौरान जारी किया गया, जिसमें याचिकाकर्ता ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें अंतरिम याचिका को खारिज कर दिया गया था। यह याचिका अपराध अपील के संदर्भ में थी, जिसमें सजा के निलंबन और जमानत देने की मांग की गई थी।
मामले में याचिकाकर्ता को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा के तहत सामूहिक बलात्कार और महिला की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए बल प्रयोग करने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। इसके अतिरिक्त, बच्चों के यौन अपराधों से संरक्षण अधिनियम (POCSO) के तहत भी उसे दोषी ठहराया गया था।
इस मामले की सुनवाई के दौरान, अदालत द्वारा नियुक्त वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े (Amicus Curiae) ने यह ध्यान दिलाया कि संबंधित सत्र न्यायालय ने पीड़िता के मुआवजे का आदेश नहीं दिया, जबकि दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 357A के तहत यह प्रावधान मौजूद है।
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SUPREME COURT: न्यायालय का आदेश और निर्देश
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरथना और न्यायमूर्ति पंकज मित्तल की खंडपीठ ने इस संदर्भ में कहा कि, “हम निर्देश देते हैं कि सत्र न्यायालय, जो महिला और बच्चों पर यौन उत्पीड़न या अन्य शारीरिक चोट से संबंधित मामलों की सुनवाई कर रहा है, उसे मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पीड़ित को मुआवजा देने का आदेश देना चाहिए।
कोर्ट ने यह भी कहा कि यह निर्देश जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (SLSA) द्वारा शीघ्रता और पूरी निष्ठा के साथ लागू किया जाना चाहिए, ताकि पीड़ित को जल्दी से जल्दी मुआवजा प्राप्त हो सके। इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने कहा कि सत्र न्यायालय मामलों की विशेष परिस्थितियों के अनुसार, अंतरिम मुआवजे का आदेश भी दे सकता है।
अधिवक्ता संजय हेगड़े ने कोर्ट में कहा कि CrPC की धारा 357A के तहत मुआवजा योजनाएं सभी राज्यों में लागू हैं, लेकिन उन्हें सही और प्रभावी रूप से लागू नहीं किया जा रहा है। उन्होंने महाराष्ट्र राज्य का उदाहरण देते हुए बताया कि राज्य में बलात्कार पीड़ितों, यौन अपराधों के शिकार बच्चों और तेजाब हमले के पीड़ितों के लिए ‘मनोधैर्य योजना’ लागू है, लेकिन यह अस्पष्ट है कि इस मामले में पीड़िता को इस योजना का लाभ मिला है या नहीं।
उन्होंने यह भी बताया कि CrPC की धारा 357B के तहत, मुआवजा धारा 376D के तहत लगाए गए जुर्माने के अतिरिक्त होता है, और इसमें पीड़ित के उपचार के प्रावधान भी शामिल हैं। हालांकि, इसे भी सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है।
SUPREME COURT: सत्र न्यायालय की लापरवाही पर कोर्ट की टिप्पणी
कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान पाया कि संबंधित सत्र न्यायालय ने पीड़ित को मुआवजा देने का कोई आदेश नहीं दिया था, जो कि एक महत्वपूर्ण चूक है। कोर्ट ने इसे मुआवजा वितरण में देरी का प्रमुख कारण बताया। अदालत ने कहा, “सत्र न्यायालय की इस प्रकार की लापरवाही मुआवजा देने में देरी का कारण बनेगी, जो कि न्यायसंगत नहीं है।”
इस मामले में याचिकाकर्ता ने दोषसिद्धि और 20 वर्ष की सजा के विरुद्ध यह तर्क दिया कि वह पहले ही 9 वर्ष और 7 महीने की सजा काट चुका है। उसने यह भी बताया कि उसने कुल सजा का 50% से अधिक समय जेल में बिताया है, और इसी मामले में उसके सह-आरोपी को सजा निलंबन का लाभ दिया गया था। कोर्ट ने इन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए याचिकाकर्ता को सजा निलंबित करते हुए जमानत पर रिहा करने का आदेश दिया।
SUPREME COURT: मुआवजा प्रक्रिया के क्रियान्वयन के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दिया कि सभी उच्च न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाए कि वे इस आदेश को अपने अंतर्गत सभी प्रमुख जिला न्यायाधीशों और सत्र न्यायाधीशों तक पहुँचाएँ। यह भी कहा गया कि सत्र न्यायालयों के लिए यह अनिवार्य होगा कि वे पीड़ित मुआवजा योजना को उचित मामलों में लागू करें।
कोर्ट ने कहा कि इस मामले में पीड़िता को POCSO नियम 2012 के नियम 7 और POCSO नियम 2020 के नियम 9 के तहत मुआवजा देने पर विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए बॉम्बे हाईकोर्ट को निर्देश दिया गया कि वह इस मामले में अंतरिम मुआवजे पर शीघ्र विचार करे।
SUPREME COURT: निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन मामलों में पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जहां महिलाओं और बच्चों को शारीरिक चोट या यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। इस फैसले में अदालत ने यह स्पष्ट किया कि मुआवजा देने की प्रक्रिया को न्यायपालिका के स्तर पर तेजी से लागू करना चाहिए।