SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उन मामलों में गंभीर चिंता व्यक्त की, जहां अपेक्षाकृत छोटे अपराधों में आरोपित व्यक्ति जमानत पाने के लिए लंबे समय तक संघर्ष करते रहते हैं और अंततः शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने को मजबूर हो जाते हैं।
यह मुद्दा [जतिन मुरजानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य] मामले की सुनवाई के दौरान उठा, जिसमें एक व्यक्ति को चुराए गए पैन और आधार कार्ड का उपयोग करके फर्जी जीएसटी पंजीकरण बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
SUPREME COURT: जमानत पर सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने जमानत आवेदनों पर देरी और निचली अदालतों की भूमिका पर सवाल उठाए। अदालत ने कहा,
“हमने बार-बार कहा है कि किसी व्यक्ति को लंबे समय तक हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं है। उसे पहले ही जमानत मिल जानी चाहिए थी।”
पीठ ने निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों के दृष्टिकोण की आलोचना की, जो मामूली अपराधों के मामलों में जमानत देने में अनावश्यक देरी करते हैं। न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में लंबे समय तक कारावास का कोई उद्देश्य नहीं है, खासकर जब सुनवाई में वर्षों का समय लग सकता है।
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मामला उत्तर प्रदेश के एक आरोपी से जुड़ा था, जिसे फर्जी जीएसटी पंजीकरण बनाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस मामले में आरोपी की जमानत याचिका को खारिज कर दिया था, जबकि अन्य सह-आरोपियों को पहले ही जमानत दी जा चुकी थी।
इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए कहा कि समान परिस्थितियों में सह-आरोपियों को जमानत मिलने के बाद भी मुख्य आरोपी को हिरासत में रखने का कोई औचित्य नहीं है।
अदालत ने पूछा,
“मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारणीय ऐसे मामलों की सुनवाई 10 साल तक नहीं होगी। फिर आरोपी को जेल में रखने का क्या उद्देश्य है?”
SUPREME COURT: लंबे कारावास की आवश्यकता पर सवाल
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसे मामूली अपराधों में, जहां सुनवाई में वर्षों का समय लग सकता है, आरोपी को लंबे समय तक हिरासत में रखना न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। अदालत ने कहा,
“हत्या जैसे गंभीर मामलों में भी हम परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए जमानत दे रहे हैं। फिर मजिस्ट्रेट स्तर के अपराधों में आरोपी को जेल में रखना उचित कैसे हो सकता है?”
सुप्रीम कोर्ट ने देरी के कारण उत्पन्न व्यावहारिक समस्याओं पर भी जोर दिया। अदालत ने कहा कि जमानत जैसे मामलों में उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
“जमानत न्याय का एक सामान्य नियम है और कारावास अपवाद।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिरासत का उद्देश्य केवल आरोपियों की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, न कि उन्हें सजा के तौर पर जेल में रखना।
SUPREME COURT: उत्तर प्रदेश सरकार की दलील
उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए वकील ने इस मामले में आरोपी की भूमिका को सह-आरोपियों से अलग बताने के लिए समय मांगा। राज्य ने तर्क दिया कि मामले की जांच और साक्ष्य में अंतर के कारण आरोपी को अभी तक जमानत नहीं दी गई।
तदनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने मामले को 23 दिसंबर, 2024 को सूचीबद्ध किया और राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह यह स्पष्ट करे कि आरोपी का मामला सह-आरोपियों से किस प्रकार भिन्न है।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी जमानत से संबंधित मामलों में स्पष्ट निर्देश दिए हैं। अदालत ने कहा था कि निचली अदालतों को जमानत के मामलों में बिना विलंब के फैसले देने चाहिए, ताकि न्याय प्रक्रिया में अनावश्यक देरी न हो। अदालत ने यह भी कहा कि छोटे अपराधों के मामलों में लंबे समय तक हिरासत में रखने से आरोपी के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
SUPREME COURT: निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी भारतीय न्यायिक व्यवस्था में जमानत प्रक्रिया को लेकर एक गंभीर चेतावनी है। छोटे अपराधों में आरोपी व्यक्तियों को जमानत देने में देरी न केवल न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि यह मानवाधिकारों का भी हनन है।
यह मामला इस बात की ओर संकेत करता है कि निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों को अपनी प्रक्रियाओं को तेज करना होगा और जमानत जैसे मामलों में मानवीय दृष्टिकोण अपनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट की यह पहल जमानत प्रक्रिया में सुधार के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।