सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: सुप्रीम कोर्ट ने आज सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को उनके जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव को समाप्त करने के लिए संशोधन करने का आदेश दिया है। यह टिप्पणी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर एक जनहित याचिका (PIL) पर सुनवाई करते हुए दी गई, जिसमें विभिन्न राज्यों की जेल प्रणाली में चल रहे जातिगत भेदभाव पर ध्यान आकर्षित किया गया था। याचिका में यह उजागर किया गया था कि कई राज्य जेल मैनुअल अभी भी जातिगत पदानुक्रम पर आधारित नियमों और प्रथाओं को लागू कर रहे हैं, जो समानता के संवैधानिक सिद्धांतों का स्पष्ट उल्लंघन है।
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने तीन महीने की अवधि के भीतर जेल मैनुअल में संशोधन करने का निर्देश दिया है। शुरुआत में, मुख्य न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता के वकीलों की प्रशंसा करते हुए कहा कि यह याचिका बहुत ही खूबसूरती से तैयार की गई थी और उन्होंने उपस्थित वकीलों को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा, “यह वकीलों द्वारा बहुत ही सुंदर ढंग से तैयार की गई याचिका थी, और मैं उपस्थित वकीलों को धन्यवाद देना चाहूंगा। उन्होंने हमें सोचने का मुद्दा दिया।”
अदालत ने अपने निर्णय को कई खंडों में विभाजित किया। पहला खंड आपराधिक कानूनों में जातिगत भेदभाव के उन्मूलन की आवश्यकता को रेखांकित करता है। अदालत ने कहा कि हमारे संविधान ने समानता और गरिमा का जो मुक्ति मार्ग प्रस्तुत किया है, उसमें जातिगत भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
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अदालत ने कहा कि “अनुच्छेद 21 के तहत जाति को समझदार वर्गीकरण के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। जाति का उपयोग कैदियों के खिलाफ भेदभाव करने के लिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस प्रकार के अलगाव से दुश्मनी और असमानता को बढ़ावा मिलेगा।” अदालत ने इस बात पर भी जोर दिया कि जाति, लिंग, विकलांगता या किसी भी अन्य आधार पर भेदभाव जेल सुधार की प्रक्रिया को अवरुद्ध करता है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: जेल मैनुअल में जातिगत भेदभाव के प्रावधान
अदालत ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे अपने जेल मैनुअल और नियमों में संशोधन कर यह सुनिश्चित करें कि कैदियों के बीच जातिगत भेदभाव समाप्त हो। इसके लिए तीन महीने का समय दिया गया है। केंद्र सरकार को भी निर्देश दिया गया है कि वे मॉडल जेल मैनुअल 2016 और मॉडल जेल एवं सुधार सेवाएं अधिनियम 2023 में जातिगत भेदभाव समाप्त करने के लिए आवश्यक परिवर्तन करें।
अदालत ने जेल मैनुअल में “आदतन अपराधी” शब्द के उपयोग के बारे में कहा कि इसे राज्य के कानूनों के अनुसार परिभाषित किया जाना चाहिए और भविष्य में संविधान के विरुद्ध किसी भी चुनौती के आधार पर संशोधन किया जा सकता है। अदालत ने “आदतन अपराधी” के अन्य संदर्भों को असंवैधानिक घोषित किया है और राज्य तथा केंद्र सरकारों को तीन महीने के भीतर संबंधित नियमों में संशोधन करने का निर्देश दिया है।
अदालत ने जेल मैनुअल में “जाति कॉलम” और कैदियों की जाति के संदर्भों को भी हटाने का निर्देश दिया है। पुलिस को यह निर्देश दिया गया है कि वे अर्नेश कुमार और अमानतुल्लाह खान मामलों में दिए गए दिशानिर्देशों का पालन करें, ताकि विमुक्त जातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: स्वत: संज्ञान मामले में भेदभाव के मुद्दों पर विचार
इस मामले में न्यायालय ने जेलों के अंदर होने वाले भेदभाव के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया है। चाहे वह जाति, लिंग, विकलांगता, या किसी भी अन्य आधार पर हो, अदालत ने इसे “भारत की जेलों में भेदभाव” के मामले के रूप में दर्ज किया और इस पर तीन महीने बाद संबंधित पीठ के सामने सुनवाई की जाएगी।
अदालत ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से पहली सुनवाई की तारीख पर इस निर्णय के अनुपालन पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण और बोर्ड ऑफ विजिटर्स 2016 के जेल मैनुअल के तहत नियमित निरीक्षण करेंगे ताकि जातिगत भेदभाव या इसी प्रकार की भेदभावपूर्ण प्रथाओं की पहचान की जा सके। यह संयुक्त रिपोर्ट राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण को प्रस्तुत की जाएगी, जिसे बाद में इस स्वत: संज्ञान याचिका में प्रस्तुत किया जाएगा।
केंद्र सरकार को यह भी निर्देश दिया गया है कि वे इस निर्णय की एक प्रति सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के मुख्य सचिव को तीन सप्ताह के भीतर भेजें।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: जातिगत भेदभाव और श्रम का विभाजन
याचिकाकर्ता ने अदालत को बताया कि भारतीय जेल प्रणाली में जातिगत भेदभाव की वास्तविकताएं भेदभावपूर्ण प्रथाओं की एक श्रृंखला को मजबूती देती हैं। इसमें श्रम का विभाजन जातिगत पदानुक्रम के आधार पर किया जाता है और बैरकों का जातिगत विभाजन होता है।
याचिका में राजस्थान जेल नियमावली 1951 का उल्लेख किया गया था, जिसमें जातिगत आधार पर काम का विभाजन किया जाता था। उदाहरण के रूप में, नियम 37 में “मेहतर” जाति को शौचालय की सफाई का कार्य सौंपा गया था, जबकि नियम 67 में केवल “ब्राह्मण या उच्च जाति” के कैदियों को खाना पकाने का काम सौंपा जाता था। याचिकाकर्ता का कहना था कि ऐसे प्रावधान बंद स्थानों जैसे जेलों में भी जातिगत पदानुक्रम को मजबूती प्रदान करते हैं।
तमिलनाडु के पलायमकोट्टई सेंट्रल जेल में ‘थेवार्स’, ‘नादर्स’, ‘पल्लार्स’ जैसे जातियों के अलग-अलग हिस्सों में रहने का मामला भी उल्लेखित किया गया, जो जेलों में जातिगत विभाजन को दर्शाता है। पश्चिम बंगाल जेल कोड में भी जातिगत आधार पर श्रम का आवंटन किया गया था, जिसमें खाना पकाने की जिम्मेदारी “उच्च जाति” के कैदियों को सौंपी जाती थी, जबकि सफाई का काम ‘मेथर’ या ‘हारी’ जाति के लोगों को दिया जाता था।
याचिकाकर्ता ने कहा कि जेलों में जातिगत भेदभाव समाज में पहले से मौजूद असमानताओं को और बढ़ावा देता है। जातिगत विभाजन और श्रम का ऐसा विभाजन कैदियों को सामूहिक पहचान तक सीमित कर देता है और सुधार की प्रक्रिया को ठप कर देता है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्देश: अदालत की टिप्पणी और निर्णय
अदालत ने इस याचिका को उपर्युक्त निर्देशों के साथ निस्तारित कर दिया। मुख्य न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का वर्गीकरण असंवैधानिक है और इसे समाप्त किया जाना चाहिए। जातिगत भेदभाव न केवल संविधान के मूल्यों का उल्लंघन है, बल्कि यह मानवाधिकारों और समानता की मूलभूत अवधारणाओं के भी खिलाफ है।
अदालत ने कहा, “जाति के आधार पर वर्गीकरण कैदियों को सामूहिक पहचान तक सीमित कर देता है और सुधार प्रक्रिया ठप हो जाती है। जेल सुधार का मुख्य उद्देश्य कैदियों का पुनर्वास करना है, न कि उनके साथ भेदभाव करना।”












