सिक्किम उच्च न्यायालय का फैसला: सिक्किम उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया है कि किसी लंबित कार्यवाही में पारित आदेश, यदि पक्षों के अधिकारों और दायित्वों को अंतिम रूप से तय नहीं करता और न ही कार्यवाही का समापन करता है, तो उसे ‘अंतरिम आदेश’ के रूप में माना जाएगा। यह अवलोकन तब किया गया जब उच्च न्यायालय एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें परिवार न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती दी गई थी। इस आदेश के तहत पुनरीक्षणकर्ता को प्रतिवादी को ₹25,000 प्रति माह की अंतरिम गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया गया था।
इस याचिका पर सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति मीनाक्षी मदन राय की अध्यक्षता वाली पीठ ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश, जो लंबित कार्यवाही में पारित किए जाते हैं और जिनके कारण कार्यवाही का अंतिम रूप से निपटारा नहीं होता या पक्षों के अधिकारों और दायित्वों का निर्णय अंतिम रूप से नहीं होता, वे ‘अंतरिम आदेश’ के अंतर्गत आते हैं। यह अवलोकन महत्वपूर्ण है क्योंकि यह न्यायालय के समक्ष पेश किए जाने वाले अंतरिम आदेशों की कानूनी स्थिति और उनके औचित्य को स्पष्ट करता है।
सिक्किम उच्च न्यायालय का फैसला: मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले की पृष्ठभूमि इस प्रकार है: प्रतिवादी, जो एक महिला है, ने अपने और अपनी बेटी के लिए भरण-पोषण की मांग करते हुए दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत एक याचिका दायर की थी। उन्होंने प्रति माह ₹1 लाख की राशि की मांग की थी। दूसरी ओर, पुनरीक्षणकर्ता (पति) ने इस याचिका का विरोध करते हुए यह तर्क दिया कि प्रतिवादी ने स्वेच्छा से वैवाहिक घर छोड़ दिया था और वह गुजारा भत्ता की हकदार नहीं है। पुनरीक्षणकर्ता ने इसके साथ ही सीआरपीसी की धारा 126 के तहत क्षेत्राधिकार की आपत्ति भी उठाई थी, जिसमें कहा गया था कि परिवार न्यायालय इस मामले को सुनने का अधिकार नहीं रखता।
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परिवार न्यायालय ने इस मामले पर विचार करने के बाद ₹25,000 प्रति माह की अंतरिम गुजारा भत्ता देने का आदेश पारित किया। हालांकि, बाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के आधार पर इस मामले को मध्यस्थता के लिए भेजा गया, जिसके परिणामस्वरूप अंतरिम भत्ता घटाकर ₹15,000 कर दिया गया। वर्तमान में यह मामला मध्यस्थता केंद्र के समक्ष लंबित है, और इसका अंतिम निपटारा अभी नहीं हुआ है।
सिक्किम उच्च न्यायालय का फैसला: न्यायालय का अवलोकन
उच्च न्यायालय ने इस मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय के एक पुराने निर्णय, मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य, का उल्लेख किया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘अंतरिम आदेश’ की परिभाषा को स्पष्ट किया था।
उच्च न्यायालय ने इस परिभाषा को अपने अवलोकन का आधार बनाते हुए कहा कि “एक ऐसा आदेश जो पक्षों के अंतिम अधिकारों से संबंधित नहीं है, लेकिन या तो (1) निर्णय से पहले किया गया है, और विवादित मामलों पर कोई अंतिम निर्णय नहीं देता है, बल्कि केवल एक प्रक्रिया के मामले में होता है, या (2) निर्णय के बाद किया गया है, और केवल यह निर्देश देता है कि पहले दिए गए अंतिम निर्णय में अधिकार की घोषणा कैसे लागू की जानी चाहिए, उसे ‘अंतरिम आदेश’ कहा जाता है।”
इस मामले में, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि चूंकि परिवार न्यायालय द्वारा पारित आदेश कार्यवाही को अंतिम रूप से समाप्त नहीं करता है और न ही पक्षों के अधिकारों और दायित्वों का निपटारा करता है, इसे ‘अंतरिम आदेश’ के रूप में माना जाना चाहिए।
सिक्किम उच्च न्यायालय का फैसला: समस्या का विश्लेषण
अंतरिम आदेशों के संबंध में पुनरीक्षणकर्ता का तर्क यह था कि परिवार न्यायालय ने जो अंतरिम आदेश दिया था, वह अनुचित था और न्याय का उल्लंघन करता था। पुनरीक्षणकर्ता ने इस आदेश के खिलाफ उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने न्यायालय से इस आदेश को रद्द करने की मांग की थी। हालांकि, उच्च न्यायालय ने इस तर्क को खारिज कर दिया और यह कहा कि पुनरीक्षणकर्ता अदालत में जल्दीबाज़ी में आकर न्यायालय का समय बर्बाद कर रहा है।
अदालत ने यह भी कहा कि पुनरीक्षणकर्ता न्याय के उल्लंघन का दावा करते हुए यह नहीं कह सकता कि उसके साथ अन्याय हो रहा है, जबकि कार्यवाही अभी भी लंबित है। पुनरीक्षणकर्ता को यह अधिकार नहीं है कि वह कार्यवाही के समापन से पहले ही न्यायालय का दरवाजा खटखटाए और आदेश को चुनौती दे।
सिक्किम उच्च न्यायालय का फैसला: निष्कर्ष
अंत में, उच्च न्यायालय ने पुनरीक्षण याचिका को समयपूर्व मानते हुए इसे खारिज कर दिया। अदालत ने पुनरीक्षणकर्ता से कहा कि वह कार्यवाही के अंतिम निपटारे की प्रतीक्षा करे और तब तक अंतरिम आदेश का पालन करे।
इस मामले का शीर्षक सुजीत कुमार साहा बनाम लक्ष्मी गुप्ता है, और पुनरीक्षणकर्ता की ओर से अधिवक्ता गीता बिस्टा और प्रतीक्षा गुरंग ने पैरवी की, जबकि प्रतिवादी की ओर से अधिवक्ता काजी सांगय थुपदेन, साजल शर्मा, सोम माया गुरंग और प्रेरणा राय ने पक्ष रखा।
यह मामला अंतरिम आदेशों की कानूनी स्थिति पर महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करता है और यह स्पष्ट करता है कि जब तक किसी मामले का अंतिम निपटारा नहीं होता है, तब तक अंतरिम आदेशों को अदालत द्वारा चुनौती देना जल्दबाज़ी और अनुचित है।
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