DELHI HIGH COURT: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक POCSO केस को खारिज कर दिया है, यह देखते हुए कि संबंधित पक्षों के बीच समझौता हो चुका है और दोनों अब सुखी वैवाहिक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। यह मामला आईपीसी की धारा 363, 366 और 376 तथा POCSO एक्ट की धारा 6 के तहत दर्ज था। कोर्ट ने इस केस की कार्यवाही को खारिज करते हुए कहा कि मामले को जारी रखने से केवल याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के विवाह में अनावश्यक हस्तक्षेप होगा।
DELHI HIGH COURT: केस की पृष्ठभूमि
मामले की शुरुआत प्रतिवादी नंबर 2 द्वारा एक एफआईआर दर्ज कराने से हुई थी, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी 15 वर्षीय बेटी ट्यूशन के लिए गई थी, परंतु वह वापस नहीं लौटी। इसके बाद उन्हें उसकी तरफ से फोन आया जिसमें उसने बताया कि वह अपने पड़ोसी, याचिकाकर्ता के साथ है। इस एफआईआर में याचिकाकर्ता पर लड़की को बहला-फुसलाकर भगाने का आरोप लगाया गया था।
हालांकि, जब लड़की वापस लौटी, तो उसने पुलिस और न्यायालय के सामने यह स्वीकार किया कि उसने अपनी मर्जी से याचिकाकर्ता के साथ विवाह किया। उसने सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दिए गए बयान में यह भी कहा कि उसकी उम्र उस समय लगभग 17 वर्ष थी, जो उसके जन्म प्रमाण पत्र से भी पुष्टि होती है। लड़की के इस बयान के बाद मामला थोड़ा संवेदनशील हो गया क्योंकि इसमें लड़की की सहमति और परिपक्वता को ध्यान में रखा जाना आवश्यक था।
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DELHI HIGH COURT: कोर्ट का निर्णय और तर्क
इस मामले की सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति अमित महाजन की खंडपीठ ने विभिन्न प्रासंगिक निर्णयों पर विचार किया। कोर्ट ने ‘नरिंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य (2014)’ के मामले पर आधारित निर्णय का हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया कि जब दोनों पक्षों के बीच समझौता हो चुका हो और इसके आधार पर आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने की याचिका दायर की जाती है, तो कोर्ट का यह अधिकार है कि वह “न्याय की प्राप्ति” और “अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने” के उद्देश्य से कार्यवाही समाप्त कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि हत्या, बलात्कार, डकैती जैसे गंभीर अपराधों में समझौते के आधार पर कार्यवाही रद्द नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि ये अपराध केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि समाज पर गंभीर प्रभाव डालते हैं। इसी तरह, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे विशेष कानूनों के तहत सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपने पद पर रहते हुए किए गए अपराधों को भी केवल समझौते के आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता।
कोर्ट ने ‘परबतभाई आहिर बनाम गुजरात राज्य (2017)’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का भी हवाला दिया, जिसमें यह कहा गया था कि मानसिक विकृति और गंभीर अपराधों जैसे हत्या, बलात्कार और डकैती को समझौते के आधार पर समाप्त नहीं किया जा सकता, भले ही पीड़ित और आरोपी के बीच समझौता हो चुका हो। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में जनता के हित को प्रमुख माना है और कहा कि यह अपराध समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं।
DELHI HIGH COURT: वैवाहिक जीवन में हस्तक्षेप के मुद्दे पर कोर्ट का रुख
कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि इस विशेष मामले में लड़की और याचिकाकर्ता के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित हो चुका है, और दोनों अब सुखी वैवाहिक जीवन जी रहे हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस मामले को जारी रखने से न केवल उनकी वैवाहिक स्थिति में अवरोध उत्पन्न होगा, बल्कि अदालत की प्रक्रिया का भी दुरुपयोग होगा। कोर्ट ने यह माना कि इस केस में किसी बड़े समाजिक हित का मुद्दा नहीं है और न ही इसे समाज पर गंभीर प्रभाव डालने वाला मामला समझा जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता तुषार अरोड़ा ने कोर्ट में पक्ष रखा, जबकि प्रतिवादी की ओर से अतिरिक्त सरकारी वकील (एपीपी) सुनील कुमार गौतम ने कोर्ट में पैरवी की। याचिकाकर्ता ने कोर्ट के समक्ष यह तर्क रखा कि दोनों पक्ष अब समझौते के आधार पर साथ रह रहे हैं, और यह कि याचिका को खारिज करने से उनके जीवन में स्थिरता आएगी।
वहीं प्रतिवादी के अधिवक्ता ने इस मुद्दे पर आपत्ति नहीं जताई और मामले को खारिज करने की सहमति प्रदान की। कोर्ट ने दोनों पक्षों के तर्कों को सुनने के बाद और उनकी पारस्परिक सहमति को ध्यान में रखते हुए, यह निष्कर्ष निकाला कि इस मामले को जारी रखना उनकी निजी जीवन में अनावश्यक बाधा उत्पन्न करेगा।
अंततः कोर्ट ने एफआईआर और इससे संबंधित सभी कार्यवाहियों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि इस विवाद को जीवित रखने से कोई विशेष लाभ नहीं है और यह केवल अदालत की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। न्यायमूर्ति महाजन की खंडपीठ ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि ऐसे मामलों में जहां समझौता हो चुका हो, कोर्ट को न्याय की प्राप्ति और अदालत की प्रक्रिया की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेना चाहिए।
दिल्ली हाईकोर्ट ने यह निर्णय दिया कि ऐसे मामलो में, जहां एक समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने की याचिका हो, अदालत का यह कर्तव्य है कि वह न्याय और समाज के हित को प्राथमिकता देते हुए विवेक का प्रयोग करे।












