HIGH COURT RAJASTHAN: राजस्थान हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि जिन अभियुक्तों को न्यायालय में उपस्थित होने का अवसर नहीं मिल पाया, वे भी लाभ पाने के हकदार हैं, यदि न्यायालय को यह संदेह हो कि कार्यवाही प्रक्रिया का दुरुपयोग किया जा सकता है।
हाईकोर्ट ने इस फैसले के साथ ही पिछले 23 वर्षों से लंबित वन संरक्षण अधिनियम, 1980 और राजस्थान वन अधिनियम, 1953 के तहत दर्ज आपराधिक मामलों को निरस्त कर दिया।
HIGH COURT RAJASTHAN: वन विभाग के पेड़ों की अवैध कटाई का आरोप
यह मामला वर्ष 2001 में बिना अनुमति के सड़क निर्माण के दौरान पेड़ों की अवैध कटाई से जुड़ा हुआ था। इस संबंध में 30 अगस्त 2002 को भादरा क्षेत्रीय वन अधिकारी ने 17 लोगों के खिलाफ एक शिकायत दर्ज कराई थी। शिकायत में यह आरोप लगाया गया था कि महाराणा वितरिक से महाराणा गांव तक जाने वाले मार्ग पर वन विभाग द्वारा लगाए गए पेड़ों को पीडब्ल्यूडी और उसके ठेकेदारों द्वारा अवैध रूप से काट दिया गया।
जांच के दौरान यह पाया गया कि ठेकेदार मेसर्स गणेश बिल्डर्स ने 2002 में ही अपराध स्वीकार कर लिया था और 61,000 रुपये की अग्रिम राशि जमा करवा दी थी। हालांकि, कुल 3,73,200 रुपये की राशि में से 3,12,200 रुपये अभी भी बकाया थे। इसी प्रकार, एक अन्य मामले में 2,90,400 रुपये की कुल राशि में से 2,49,400 रुपये का भुगतान नहीं किया गया था।
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मुकदमे की स्थिति और अभियुक्तों की परेशानियाँ
इस मामले में 14 अभियुक्तों के खिलाफ ट्रायल शुरू हुआ, लेकिन इनमें से 7 अभियुक्तों की मुकदमे के दौरान मृत्यु हो गई। 4 अभियुक्तों को अब तक सम्मन भी नहीं मिल पाया था। 1 आरोपी, राजेंद्र, ने 2019 में एक पुनरीक्षण याचिका (रिवीजन पिटिशन) दायर कर अपने खिलाफ मामला खत्म करवा लिया था।
इस दौरान अभियुक्तों को मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ा। न्यायालय ने माना कि इन अभियुक्तों को बिना अपराध सिद्ध हुए ही वर्षों तक कानूनी प्रक्रिया के बोझ तले जीना पड़ा, जो न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला
इस मामले की सुनवाई करते हुए राजस्थान हाईकोर्ट के जस्टिस फरजंद अली ने कहा कि 23 वर्षों से लंबित यह मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार ‘तेजी से न्याय पाने’ (Right to Speedy Trial) के सिद्धांत के विपरीत है। उन्होंने कहा कि न्यायालय का कार्य निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया को सुनिश्चित करना है, न कि किसी पक्ष को अनावश्यक रूप से परेशान करना।
न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट किया कि:
- न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकना आवश्यक है: यदि अदालत को यह संदेह होता है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया जा रहा है, तो ऐसे मामलों को खत्म करना न्याय हित में होगा।
- तेजी से न्याय पाने का अधिकार: अनुच्छेद 21 के तहत यह एक मौलिक अधिकार है कि व्यक्ति को अनिश्चितकाल तक कानूनी प्रक्रिया में नहीं उलझाया जाए।
- साक्ष्य की अनुपलब्धता: इतने वर्षों बाद पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध नहीं रह जाते, जिससे निष्पक्ष सुनवाई असंभव हो जाती है।
- अन्याय से बचाव: न्यायालय ने यह भी कहा कि जो अभियुक्त अदालत नहीं आ सके, उन्हें भी स्वतः राहत दी जाएगी।
वन विभाग और पीडब्ल्यूडी के असमन्वय से खड़ा हुआ विवाद
न्यायालय ने इस मामले में राज्य सरकार और संबंधित विभागों की कार्यशैली पर भी गंभीर प्रश्न उठाए। जस्टिस अली ने कहा कि यदि वन विभाग ने समय रहते पीडब्ल्यूडी को आवश्यक जानकारी दी होती, तो इस तरह का विवाद खड़ा ही नहीं होता। यह प्रशासनिक असमन्वय का एक उदाहरण है, जिसने इस कानूनी प्रक्रिया को 23 वर्षों तक खींच दिया।
इस मामले में याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता विनीत जैन और उनके सहयोगी प्रवीण व्यास ने किया। उन्होंने न्यायालय के समक्ष तर्क रखा कि इतने वर्षों से लंबित मामला अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर रहा है। न्यायालय ने उनकी दलीलों को स्वीकार करते हुए मामले को रद्द करने का निर्णय सुनाया।
महत्वपूर्ण निष्कर्ष
- 23 वर्षों से लंबित मामला खत्म: हाईकोर्ट ने कहा कि इतने लंबे समय तक न्यायिक प्रक्रिया में अभियुक्तों को बनाए रखना अनुचित है।
- अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: अदालत ने स्पष्ट किया कि यह मामला ‘तेजी से न्याय पाने’ के अधिकार का हनन करता है।
- सभी अभियुक्तों को राहत: सिर्फ वे अभियुक्त ही नहीं जो अदालत में उपस्थित थे, बल्कि वे भी जो किसी कारणवश अदालत नहीं आ सके, सभी को इस फैसले से राहत मिली।
- न्यायिक प्रणाली में सुधार की जरूरत: अदालत ने प्रशासनिक विभागों के समन्वय की कमी को उजागर किया और इस तरह की घटनाओं से बचने के लिए सुधारात्मक उपाय अपनाने की आवश्यकता बताई।
राजस्थान हाईकोर्ट के फैसले का व्यापक प्रभाव
राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि मुकदमों को अनावश्यक रूप से लंबित रखना न केवल अभियुक्तों के लिए हानिकारक है, बल्कि यह न्याय प्रणाली पर भी अतिरिक्त भार डालता है।
इस निर्णय से यह संदेश जाता है कि न्यायिक प्रक्रिया का उद्देश्य केवल मुकदमों को लंबित रखना नहीं है, बल्कि निष्पक्ष और त्वरित न्याय सुनिश्चित करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
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