Historic Judgment of Jodhpur Bench: राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि यदि पीड़ित, शिकायतकर्ता या मुख्य गवाह अपने बयान से पलट जाते हैं और अभियोजन पक्ष के आरोपों का समर्थन करने में असमर्थ होते हैं, तो मात्र विशेषज्ञ या वैज्ञानिक साक्ष्य के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
यह निर्णय एक POCSO (यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम) मामले में आया, जिसमें निचली अदालत द्वारा आरोपी को बरी करने के फैसले को चुनौती दी गई थी। हाईकोर्ट ने इस फैसले को बरकरार रखते हुए अभियोजन पक्ष के दावों को खारिज कर दिया।
Historic Judgment of Jodhpur Bench: FSL और DNA रिपोर्ट पर अभियोजन पक्ष की निर्भरता
यह मामला एक नाबालिग लड़के के यौन उत्पीड़न से संबंधित था, जिसमें आरोपी को पहले ही निचली अदालत द्वारा बरी कर दिया गया था। इस फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने हाईकोर्ट में अपील दायर की थी।
अभियोजन पक्ष का दावा था कि भले ही पीड़ित बच्चा और उसके माता-पिता अपने बयान से पलट गए हों, लेकिन फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला (FSL) और DNA रिपोर्ट, जिसमें आरोपी के खून के नमूने और पीड़ित के कपड़ों पर मिले खून के निशानों का मिलान हुआ था, आरोपी को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत प्रदान करती हैं।
हालांकि, हाईकोर्ट ने अभियोजन पक्ष की इस दलील को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि केवल वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती, जब तक कि अन्य ठोस सबूत मौजूद न हों।
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फोरेंसिक रिपोर्ट की सीमाओं पर जोर
जस्टिस अरुण मोंगा की अध्यक्षता वाली पीठ ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 45 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 39 का उल्लेख करते हुए कहा कि फोरेंसिक रिपोर्ट केवल पुष्टि करने के लिए होती हैं, न कि निर्णायक साक्ष्य के रूप में।
“कानून निस्संदेह ट्रायल कोर्ट को विशेषज्ञों की राय पर भरोसा करने की अनुमति देता है, लेकिन यह राय केवल सहायता के लिए होती है, बाध्यकारी नहीं। विशेषज्ञ साक्ष्य अपने आप में पुष्टि करने वाला होता है, न कि निर्णायक। इसे स्वीकार्य साक्ष्य के अन्य रूपों द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए।”
कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि विशेषज्ञ साक्ष्य की विश्वसनीयता, उसकी कार्यप्रणाली और अन्य साक्ष्यों के साथ उसकी संगति महत्वपूर्ण होती है। न्यायालय के पास यह विवेकाधिकार होता है कि वह विशेषज्ञ की राय को स्वीकार करे या अस्वीकार करे।
निचली अदालत के निर्णय को बरकरार रखा
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि आधुनिक आपराधिक मामलों में DNA टेस्ट, फोरेंसिक रिपोर्ट और डिजिटल साक्ष्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन इनकी वैधता अन्य प्रमाणों द्वारा पुष्टि किए जाने पर निर्भर करती है।
“केवल विशेषज्ञ साक्ष्य दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि अन्य साक्ष्यों द्वारा इसकी पुष्टि न की जाए। अन्यथा, यह एक खतरनाक प्रवृत्ति होगी, जिसमें विशेषज्ञ गवाहों की राय को बिना किसी पुष्टि के ही निर्णायक मान लिया जाएगा।”
कोर्ट ने आगे यह भी कहा कि यदि पीड़ित, शिकायतकर्ता या अन्य प्रमुख गवाह अभियोजन पक्ष के समर्थन में नहीं आते हैं, तो केवल वैज्ञानिक साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती।
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी माना कि अभियोजन पक्ष के पास अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने के लिए कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। इस कारण से, हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा और राज्य की अपील को खारिज कर दिया।
न्यायालय के प्रमुख निष्कर्ष
- मुख्य गवाहों का बयान आवश्यक: यदि पीड़ित या अन्य प्रमुख गवाह अभियोजन पक्ष के आरोपों का समर्थन नहीं करते हैं, तो केवल वैज्ञानिक साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि नहीं की जा सकती।
- विशेषज्ञ साक्ष्य निर्णायक नहीं होते: फोरेंसिक रिपोर्ट और DNA रिपोर्ट केवल पुष्टि करने के लिए होती हैं, लेकिन इन्हें अकेले दोषसिद्धि का आधार नहीं बनाया जा सकता।
- न्यायालय का विवेकाधिकार: कोर्ट विशेषज्ञ गवाहों की राय को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार रखता है और इसे अन्य साक्ष्यों के साथ परखा जाना आवश्यक है।
- अन्य प्रत्यक्ष साक्ष्यों की आवश्यकता: अभियोजन पक्ष को अपराध साबित करने के लिए केवल वैज्ञानिक साक्ष्यों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, बल्कि अन्य ठोस सबूत भी प्रस्तुत करने चाहिए।
- निष्पक्ष न्याय की अनिवार्यता: निर्दोष व्यक्ति को दोषी ठहराने से बचने के लिए न्यायालयों को विशेष सावधानी बरतनी चाहिए।
अपराध सिद्ध करने में अभियोजन पक्ष की जिम्मेदारी
राजस्थान हाईकोर्ट का यह फैसला न्यायिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह निर्णय इस बात को रेखांकित करता है कि किसी भी अभियुक्त को दोषी ठहराने के लिए केवल वैज्ञानिक साक्ष्यों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, जब तक कि अन्य ठोस साक्ष्य मौजूद न हों।
यह फैसला आपराधिक न्याय प्रणाली में विशेषज्ञ साक्ष्यों की भूमिका को स्पष्ट करता है और यह सुनिश्चित करता है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को केवल अपुष्ट वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर दोषी न ठहराया जाए।
इस निर्णय से भविष्य में अन्य मामलों में भी अभियोजन पक्ष को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी कि वे केवल फोरेंसिक रिपोर्ट या DNA साक्ष्यों पर निर्भर न रहें, बल्कि अन्य ठोस साक्ष्यों के साथ अपराध को साबित करें।
केस टाइटल: राजस्थान राज्य बनाम एक्स
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