JAMMU KASHMIR High Court: जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए कहा कि गंभीर आपराधिक मामलों में अभियुक्त और पीड़ित के बीच हुए समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को समाप्त नहीं किया जा सकता।
अदालत ने स्पष्ट किया कि हत्या, बलात्कार, डकैती, भ्रष्टाचार, और अन्य नैतिक कदाचार से संबंधित मामलों में किसी भी प्रकार का समझौता कानूनन मान्य नहीं होगा। यह फैसला न्यायपालिका की उस दृष्टिकोण को दर्शाता है, जिसमें समाज पर पड़ने वाले व्यापक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए गंभीर अपराधों के निपटारे की बात कही गई है।
JAMMU KASHMIR High Court: याचिकाकर्ताओं के तर्क और अदालत की प्रतिक्रिया
जस्टिस विनोद चटर्जी कौल की पीठ ने कहा कि किसी भी गंभीर अपराध को केवल इसलिए रद्द नहीं किया जा सकता क्योंकि आरोपी और पीड़ित के बीच समझौता हो गया है। अदालत ने यह भी कहा कि अपराधी और पीड़ित के बीच समझौते के आधार पर किसी आपराधिक कार्यवाही को रद्द करना अपराध के कंपाउंडिंग के समान नहीं है। विशेष रूप से, भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मानसिक भ्रष्टता से जुड़े अपराधों, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम जैसे विशेष कानूनों और सरकारी अधिकारियों द्वारा की गई अवैध गतिविधियों के लिए, अभियुक्त और पीड़ित के बीच कोई समझौता मान्य नहीं हो सकता।
यह निर्णय IPC की धारा 366 और 109 के तहत दर्ज एक एफआईआर को रद्द करने की मांग वाली याचिका पर दिया गया। याचिकाकर्ताओं, सैयद मजलूम हुसैन और अन्य ने अदालत में तर्क दिया कि याचिकाकर्ता नंबर 3 ने अपनी मर्जी से प्रतिवादी नंबर 5 से विवाह किया था और अपने दावे का समर्थन करने के लिए निकाहनामा सहित अन्य दस्तावेज प्रस्तुत किए। याचिकाकर्ताओं ने आगे यह दावा किया कि पुलिस उन्हें अनावश्यक रूप से परेशान कर रही है, जबकि दोनों पक्षों के बीच समझौता हो चुका है।
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हाईकोर्ट की सीमाएं और जांच अधिकारी की भूमिका
हालांकि, अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि प्राथमिकी एक शिकायत के आधार पर दर्ज की गई थी और जांच में पाया गया कि प्रतिवादी नंबर 5 को याचिकाकर्ता नंबर 3 ने अपने भाइयों की सहायता से अपहरण कर लिया था। जांच के दौरान CrPC की धारा 164 के तहत पीड़िता का बयान दर्ज किया गया, जिसमें उसने आरोप लगाया कि अज्ञात स्थान पर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। इन तथ्यों के आधार पर IPC की धारा 376-D, 384 और 506 के तहत अतिरिक्त आरोप लगाए गए।
जस्टिस कौल ने कहा कि इस मामले में अदालत द्वारा अपनी अंतर्निहित शक्तियों का उपयोग करके निपटान की वैधता का निर्धारण नहीं किया जा सकता, बल्कि इसकी समीक्षा जांच अधिकारी द्वारा की जानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हाईकोर्ट एक मिनी-ट्रायल नहीं कर सकता और यह जांच अधिकारी पर निर्भर करता है कि वह प्रस्तुत दावों की सत्यता की पुष्टि करे।
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का संदर्भ:
अदालत ने ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य (2012) 10 SCC 303 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि निपटान के आधार पर अपराध को रद्द करना और अपराधों के कंपाउंडिंग में अंतर है। इसके अलावा, मध्य प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी नारायण (2019) 5 SCC 588 के मामले का हवाला देते हुए जस्टिस कौल ने दोहराया कि हाईकोर्ट को CrPC की धारा 482 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करने से पहले विभिन्न कारकों को ध्यान में रखना चाहिए। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि हत्या, बलात्कार और भ्रष्टाचार जैसे जघन्य अपराधों को केवल इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि पीड़ित और आरोपी के बीच समझौता हो गया है।
बलात्कार जैसे अपराधों पर अदालत की टिप्पणी:
अदालत ने विशेष रूप से बलात्कार जैसे अपराधों पर कहा कि ये अपराध केवल एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि पूरे समाज के खिलाफ होते हैं। जस्टिस कौल ने कहा कि न्यायपालिका को ऐसे मामलों में पीड़ित-संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाना चाहिए ताकि पीड़ितों के अधिकार और गरिमा प्रभावित न हों।
उन्होंने टिप्पणी की, “भारत जैसे देश में, जहां धार्मिक परंपराएं देवी-देवताओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं और कई देवी-देवताओं का स्वरूप स्त्रीलिंग है, वहां महिलाओं की शारीरिक और मानसिक अखंडता बनाए रखने के लिए समाज को अधिक सम्मान देना चाहिए, न कि उन्हें केवल पुरुषों की संपत्ति के रूप में देखना चाहिए।”
गंभीर अपराधों में समझौते की स्वीकृति नहीं:
अदालत ने कहा कि यदि किसी जघन्य अपराध में पक्षों के बीच समझौते के कारण दोषसिद्धि की संभावना कम भी हो जाती है, तब भी इसे जांच समाप्त करने या CrPC की धारा 482 के तहत FIR को रद्द करने का पर्याप्त आधार नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह तर्क दिया कि CrPC की धारा 482 का उपयोग किसी भी समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए नहीं किया जा सकता, यदि मामला किसी ऐसे गंभीर अपराध से संबंधित हो जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ता हो।
अदालत का अंतिम निर्णय:
मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए अदालत ने FIR और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया और याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि इस आदेश के साथ पहले से दिए गए सभी अंतरिम निर्देश स्वतः समाप्त हो जाएंगे।
गंभीर अपराधों पर समझौते की सीमाएँ
इस फैसले से स्पष्ट है कि न्यायपालिका केवल अपराधियों और पीड़ितों के बीच हुए समझौतों के आधार पर गंभीर अपराधों को समाप्त करने की अनुमति नहीं दे सकती। ऐसे अपराध जो समाज पर व्यापक प्रभाव डालते हैं, उन्हें केवल आपसी सहमति से समाप्त करना न्यायिक प्रक्रिया के साथ समझौता करने के समान होगा। यह निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि गंभीर अपराधों में उचित न्यायिक प्रक्रिया अपनाई जाए और दोषियों को उनके अपराधों के लिए उत्तरदायी ठहराया जाए।
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