6.7 करोड़ का बैंक घोटाला: सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 411 के तहत दोषी ठहराए गए एक जौहरी को बरी कर दिया।
यह मामला 1997 में नासिक स्थित विजया बैंक में हुए 6.7 करोड़ रुपये के फर्जी टेलीग्राफिक ट्रांसफर (टीटी) से जुड़े वित्तीय घोटाले से संबंधित था। इस मामले में आरोपी जौहरी के पास से जब्त सोने की छड़ों को चोरी की संपत्ति करार देते हुए ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने उसे दोषी ठहराया था।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल चोरी की संपत्ति का आरोपी के पास पाया जाना, IPC की धारा 411 के तहत दोषसिद्धि के लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि आरोपी को पता था कि संपत्ति चोरी की थी या उसे इस संबंध में संदेह करने का पर्याप्त कारण था।
6.7 करोड़ का बैंक घोटाला: विजया बैंक धोखाधड़ी मामला: क्या था पूरा मामला?
1997 में विजया बैंक में एक फर्जी बैंक खाता ‘मेसर्स ग्लोब इंटरनेशनल’ के नाम से खोला गया था। इस खाते में 6.7 करोड़ रुपये के फर्जी टेलीग्राफिक ट्रांसफर जमा किए गए और फिर डिमांड ड्राफ्ट के माध्यम से व्यवस्थित तरीके से धन निकाला गया। इस घोटाले से निकाले गए पैसों का कथित रूप से सोने की छड़ें खरीदने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जो बाद में कई व्यक्तियों के पास मिलीं। इनमें से एक आरोपी नंदकुमार बाबूलाल सोनी थे, जो एक आभूषण फर्म के मालिक थे। जांच में पता चला कि घोटाले के पैसे से खरीदी गई सोने की छड़ें उनकी फर्म से जब्त की गई थीं।
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ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट का फैसला
इस मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) द्वारा की गई, जिसके बाद कई गिरफ्तारियां हुईं, जिनमें नंदकुमार बाबूलाल सोनी भी शामिल थे। ट्रायल कोर्ट ने उन्हें चोरी की संपत्ति प्राप्त करने के अपराध में दोषी ठहराया और उनकी फर्म से जब्त की गई सोने की छड़ों को जब्त करने का आदेश दिया।
बाद में, हाईकोर्ट ने भी दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन ट्रायल कोर्ट के फैसले को आंशिक रूप से संशोधित करते हुए निर्देश दिया कि जब्त किए गए सोने को राज्य सरकार द्वारा जब्त किया जाए।
संदेह का लाभ देते हुए आरोपी को बरी किया गया
इस फैसले के खिलाफ आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस बी.आर. गवई, जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस केवी विश्वनाथन शामिल थे, ने मामले की सुनवाई की।
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए आरोपी को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा कि आरोपी को इस बात की जानकारी थी कि सोने की छड़ें चोरी की संपत्ति थीं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मुख्य बातें
- धारा 411 के तहत दोषसिद्धि के लिए आवश्यक शर्तें: सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 411 के तहत अभियोजन पक्ष को निम्नलिखित तीन तत्वों को साबित करना आवश्यक होता है:
- चोरी की संपत्ति आरोपी के कब्जे में थी।
- आरोपी के कब्जे में आने से पहले संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के पास थी।
- आरोपी को पता था कि संपत्ति चोरी की गई थी।
- अभियोजन पक्ष की विफलता: अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित करने में असफल रहा कि आरोपी को पता था कि डिमांड ड्राफ्ट धोखाधड़ी से प्राप्त किए गए थे और इनका उपयोग सोने की छड़ें खरीदने में किया गया था।
- चोरी की संपत्ति की पहचान नहीं हुई: अदालत ने कहा कि जब तक यह साबित नहीं हो जाता कि आरोपी के पास जो सोना मिला था, वह घोटाले से संबंधित था, तब तक उसे चोरी की संपत्ति नहीं माना जा सकता।
- त्रिम्बक बनाम मध्य प्रदेश राज्य (AIR 1954 SC 39) मामले का संदर्भ: अदालत ने इस फैसले का हवाला देते हुए कहा कि किसी भी व्यक्ति को केवल इस आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि उसके पास कोई संपत्ति मिली है, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि वह जानता था कि संपत्ति चोरी की गई थी।
अदालत का अंतिम आदेश
सुप्रीम कोर्ट ने न केवल आरोपी को बरी किया, बल्कि जब्त की गई सोने की छड़ों को भी उसे लौटाने का आदेश दिया। अदालत ने स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष सभी आवश्यक शर्तों को पूरा करने में विफल रहा और इस कारण आरोपी के खिलाफ कोई मामला नहीं बनता।
IPC धारा 411 पर सुप्रीम कोर्ट का मार्गदर्शक निर्णय
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला IPC की धारा 411 की व्याख्या को स्पष्ट करता है और यह तय करता है कि केवल किसी के पास चोरी की संपत्ति मिलने से उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि यह साबित न हो जाए कि उसे इसकी चोरी होने की जानकारी थी। इस फैसले से यह भी स्पष्ट होता है कि किसी भी आरोपी को दोषी ठहराने के लिए अभियोजन पक्ष को संदेह से परे जाकर यह साबित करना होता है कि संपत्ति चोरी की थी और आरोपी को इस बारे में पता था।
केस टाइटल: नंदकुमार बाबूलाल सोनी बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य।
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