SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में यह कहा कि यदि एक महिला अपने साथी से शादी का दबाव डाले बिना और बिना विरोध किए शारीरिक संबंध बनाती है, तो यह एक सहमति पर आधारित संबंध को दर्शाता है, न कि पुरुष द्वारा विवाह के झूठे वादे पर आधारित।
अदालत ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 376 (बलात्कार), 420 (धोखाधड़ी), 504 (शांति भंग), और 506 (धमकी) के तहत दर्ज एफआईआर को खारिज कर दिया, जिसमें आरोप था कि याचिकाकर्ता ने महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाए थे, जबकि उसने विवाह का झूठा वादा किया था।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह महत्वपूर्ण विचार रखा कि लंबे समय तक शारीरिक संबंधों का जारी रहना और महिला द्वारा विवाह की कोई आपत्ति न करना, यह दर्शाता है कि संबंध सहमति पर आधारित थे। अदालत ने कहा कि जब शारीरिक संबंध बिना किसी विरोध और बिना विवाह के लिए दबाव डाले बनाए जाते हैं, तो इसे झूठे वादे के तहत संबंध नहीं माना जा सकता।
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यह फैसला उन मामलों में एक महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश बनता है, जहां महिला का आरोप होता है कि उसे विवाह का झूठा वादा करके शारीरिक संबंध बनाए गए थे।
SUPREME COURT: मामले की पृष्ठभूमि और आरोप
यह मामला एक विधवा महिला से जुड़ा है, जिसने 2008 में याचिकाकर्ता के साथ शारीरिक संबंध शुरू किए थे। महिला का आरोप था कि याचिकाकर्ता ने उससे शादी का वादा किया था, लेकिन बाद में उस वादे से मुकर गया। महिला ने यह आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता ने शारीरिक संबंध बनाए और फिर शादी से मना कर दिया, साथ ही आर्थिक सहायता भी बंद कर दी। इसके बाद महिला ने याचिकाकर्ता के खिलाफ बलात्कार का आरोप लगाया।
याचिकाकर्ता ने अपने बचाव में कहा कि उनका संबंध पूरी तरह से सहमति से था और महिला को पहले से ही यह जानकारी थी कि वह एक शादीशुदा व्यक्ति था। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि महिला ने आरोप केवल तब लगाए जब उसने उसकी आर्थिक सहायता बंद कर दी। याचिकाकर्ता के अनुसार, महिला का आरोप पूरी तरह से बाद की घटना पर आधारित था और इसका कोई कानूनी आधार नहीं था।
SUPREME COURT: सुप्रीम कोर्ट का विचार
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की गंभीरता से सुनवाई की और पाया कि यदि शारीरिक संबंध बिना किसी दबाव और सहमति से लंबे समय तक चलते हैं, तो इसे किसी झूठे वादे पर आधारित नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने टिप्पणी की कि लंबे समय तक चलने वाले सहमति संबंधों को बाद में अपराधीकरण के तहत लाना एक चिंताजनक प्रवृत्ति है, क्योंकि यह सामान्य और निजी संबंधों को गलत तरीके से अपराधीकरण की दिशा में धकेल सकता है।
कोर्ट ने कहा, “यदि ऐसे लंबे समय तक चलने वाले शारीरिक संबंधों को किसी अपराध से जोड़ा जाता है, तो यह गंभीर परिणामों का कारण बन सकता है। इससे उन रिश्तों को अपराधी घोषित करने का खतरा पैदा हो सकता है जो पहले से ही खत्म हो चुके हैं।” इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि आरोपों में उस अपराध के तत्व नहीं हैं जो बलात्कार के रूप में आरोपित किए गए थे और यह पाया कि एफआईआर में कोई वास्तविक अपराधी तत्व नहीं था।
SUPREME COURT: फैसला और निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि यदि मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई अपराधी जिम्मेदारी नहीं बनती है, तो अदालत में मामले को जारी रखना एक दुरुपयोग होगा और यह कानूनी प्रक्रिया की गलत दिशा होगी। अदालत ने कहा, “इस स्थिति में, याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई अपराधी जिम्मेदारी नहीं बनती, और इस कारण से एफआईआर को रद्द करना न्यायसंगत है।”
अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को मंजूरी दी और मामले में दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया, इस प्रकार याचिकाकर्ता को राहत प्रदान की। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि लंबे समय तक चलने वाले सहमति आधारित शारीरिक संबंधों को बाद में अपराधीकरण के तहत खड़ा करना गलत होगा और इसे कानून के दुरुपयोग के रूप में देखा जाएगा।
SUPREME COURT: वैधानिक दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हो सकता है, क्योंकि यह सहमति आधारित व्यक्तिगत संबंधों में बलात्कार और अन्य गंभीर आरोपों के मामलों को सही तरीके से देखने का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। कोर्ट ने इस प्रकार के मामलों में सावधानी बरतने की आवश्यकता को रेखांकित किया है, ताकि किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो और समाज के सामान्य और निजी रिश्तों को बेवजह अपराधीकरण का सामना न करना पड़े।
मामला: महेश दामू खरे बनाम महाराष्ट्र राज्य
याचिकाकर्ता के वकील: गुनम वेन्कटेश्वर राव, मृणल दत्तात्रय बुवा और धैर्यशील सलुंके
प्रतिवादी के वकील: आदित्य अनिरुद्ध पांडे
इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में व्यापक न्यायिक दृष्टिकोण अपनाता है, जो सिर्फ कानूनी मुद्दों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि समाज और व्यक्तिगत अधिकारों के संरक्षण को भी ध्यान में रखते हैं।
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