Supreme Court Verdict: सुप्रीम कोर्ट ने गोवा सरकार द्वारा औद्योगिक कंपनियों को दी गई बिजली शुल्क छूट वापस लेने के फैसले को सही ठहराया है।
अदालत ने कहा कि सरकार को सार्वजनिक वित्तीय संतुलन बनाए रखने के लिए आर्थिक प्रोत्साहनों को संशोधित या समाप्त करने का अधिकार है।
Supreme Court Verdict: प्रोमिसरी एस्टॉपेल का सीमित दायरा
अदालत ने स्पष्ट किया कि प्रोमिसरी एस्टॉपेल (वादे की बाध्यता) का सिद्धांत तब लागू नहीं होगा जब सरकार द्वारा दी गई छूट सार्वजनिक हित के विरुद्ध जाती हो या राज्य के वित्त पर भारी बोझ डालती हो।
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हाईकोर्ट का फैसला बरकरार
बॉम्बे हाईकोर्ट की गोवा पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि अपीलकर्ता कंपनियां बिजली शुल्क छूट की हकदार नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को सही ठहराते हुए स्पष्ट किया कि सरकार द्वारा जारी किए गए डिमांड नोटिस वैध हैं और इसमें कोई अवैधता नहीं है।
1991 की अधिसूचना और विवाद का आधार
गोवा सरकार ने 1991 में औद्योगिक इकाइयों को बिजली दरों में 25% की छूट दी थी, जिसे 31 मार्च 1995 को वापस ले लिया गया। हालांकि, अपीलकर्ता कंपनियों ने तर्क दिया कि उन्होंने इस तिथि से पहले आवेदन किया था, इसलिए वे रियायत के पात्र हैं।
संशोधित अधिसूचना और कानूनी लड़ाई
1996 में सरकार ने दो संशोधित अधिसूचनाएं जारी कीं, जिनके आधार पर अपीलकर्ताओं ने छूट जारी रखने की मांग की। बाद में, 2001 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इन संशोधनों को शून्य घोषित कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया।
2002 का अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
गोवा सरकार ने 2002 में गोवा (आगे के भुगतान पर प्रतिबंध और छूट की वसूली) अधिनियम, 2002 लागू किया, जिसके तहत गलत तरीके से दी गई छूट की वसूली अनिवार्य कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए अपीलकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी।
न्यायालय का निष्कर्ष
अदालत ने कहा कि सरकार के वादों से अधिक महत्वपूर्ण जनहित होता है। यदि कोई आर्थिक प्रोत्साहन राज्य के वित्तीय हितों के विरुद्ध जाता है, तो सरकार उसे वापस लेने के लिए स्वतंत्र होती है।
केस टाइटल:
पूजा फेरो एलॉयज पी. लिमिटेड बनाम गोवा राज्य और अन्य (और संबंधित मामले)
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