JHARKHAND HC: झारखंड हाईकोर्ट ने अपने एक हालिया फैसले में स्पष्ट किया है कि सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के पास ₹5 लाख तक के मामलों को सुनने का अधिकार है, और यह अवैध नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि असीमित मौद्रिक अधिकारिता (Pecuniary Jurisdiction) वाले सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के समक्ष इस तरह के मामलों को चुनौती देना तर्कसंगत नहीं है, विशेष रूप से जब मुकदमा पहले ही उनके अधिकार क्षेत्र में दायर किया जा चुका हो।
यह फैसला एक सिविल याचिका के तहत सुनाया गया, जिसमें सिविल जज (सीनियर डिवीजन) द्वारा सीपीसी के ऑर्डर VII रूल 11(b) के तहत दायर आवेदन को खारिज करने के आदेश को चुनौती दी गई थी।
JHARKHAND HC: मामले की पृष्ठभूमि
मूल मामला 2015 में वादियों द्वारा दायर किया गया था, जिसमें प्रतिवादी के खिलाफ संपत्ति विवाद से संबंधित मुद्दे थे। वादियों ने मुकदमे का मूल्यांकन ₹5 लाख तक सीमित किया, जिसे प्रतिवादी पक्ष ने गलत बताया। प्रतिवादी पक्ष ने यह दावा किया कि संपत्ति का वास्तविक मूल्य ₹5 लाख से अधिक है, और इसलिए मुकदमे को मुनसिफ न्यायालय में स्थानांतरित किया जाना चाहिए था।
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2018 में, बंगाल, आगरा और असम सिविल कोर्ट (झारखंड संशोधन) अधिनियम के तहत मुनसिफ न्यायालय की अधिकारिता ₹50,000 से बढ़ाकर ₹5 लाख कर दी गई थी। प्रतिवादी पक्ष ने इसी संशोधन का हवाला देते हुए कहा कि मुकदमे की सुनवाई सिविल जज (सीनियर डिवीजन) द्वारा नहीं की जानी चाहिए।
JHARKHAND HC: याचिकाकर्ताओं की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से दायर याचिका में तर्क दिया गया कि:
- मूल वाद का मूल्यांकन: वादियों ने मुकदमे का मूल्यांकन ₹5 लाख तक सीमित किया, जबकि संपत्ति का वास्तविक मूल्य इससे कहीं अधिक है।
- न्यायालय का अधिकार क्षेत्र: सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को इस मुकदमे पर अधिकार क्षेत्र नहीं होना चाहिए क्योंकि संशोधन के बाद यह मामला मुनसिफ न्यायालय के दायरे में आता है।
- आवेदन खारिज करने का आदेश: सीपीसी के ऑर्डर VII रूल 11(b) के तहत दायर आवेदन को सिविल जज (सीनियर डिवीजन) ने खारिज कर दिया, जबकि यह सवाल पहले ही उठाया जा चुका था।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए तर्क दिया कि यदि कोई मुकदमा अधिकारिता की कमी के कारण अवैध है, तो इसे प्रारंभिक स्तर पर ही खारिज कर दिया जाना चाहिए।
JHARKHAND HC: प्रतिवादी की दलीलें
प्रतिवादी पक्ष ने इस दावे का कड़ा विरोध किया और कहा:
- मुकदमा 2015 में दायर किया गया था, जब सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को इस पर सुनवाई करने का अधिकार था।
- मुकदमे का मूल्यांकन सही था, और इसे केवल मुद्दा तय करने के बाद ही निपटाया जा सकता है।
- संशोधन के बाद भी सिविल जज (सीनियर डिवीजन) की अधिकारिता प्रभावित नहीं होती, क्योंकि मामला पहले ही उनके समक्ष दायर किया जा चुका था।
- प्रतिवादी ने यह भी कहा कि सीपीसी के ऑर्डर VII रूल 11(b) का उपयोग मुकदमे को खारिज करने के लिए नहीं किया जा सकता, जब तक कि स्पष्ट रूप से यह साबित न हो जाए कि मूल्यांकन पूरी तरह गलत है।
JHARKHAND HC: कोर्ट की टिप्पणी और अवलोकन
हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा:
- अधिकारिता का प्रभाव: मुकदमे के दायर किए जाने के समय सिविल जज (सीनियर डिवीजन) को इसे सुनने का पूरा अधिकार था। संशोधन के बाद अधिकार क्षेत्र का प्रभाव उन मुकदमों पर नहीं पड़ता जो पहले से लंबित हैं।
- मूल्यांकन का सवाल: यह सवाल कि मुकदमे का मूल्यांकन सही है या नहीं, केवल मुद्दा तय करने के बाद ही स्पष्ट हो सकता है। आवेदन में किए गए दावे के आधार पर मुकदमा खारिज करना अनुचित है।
- सुप्रीम कोर्ट का संदर्भ: कोर्ट ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का लाभ इस मामले में याचिकाकर्ता को नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह मामला अधिकारिता की सीमा के तहत आता है।
झारखंड हाईकोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के आदेश को वैध ठहराया। कोर्ट ने कहा कि आवेदन को खारिज करने का फैसला पूरी तरह से सही था और इसमें कोई त्रुटि नहीं है।
JHARKHAND HC: मामला और पक्षकार
- मामला: लागनी मुंडाइन बनाम रतन कुमारी सुराना
- याचिकाकर्ता: अधिवक्ता शशांक शेखर
- प्रतिवादी: अधिवक्ता राहुल कुमार गुप्ता, अधिवक्ता सूर्य प्रकाश
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