RAJASTHAN HC: राजस्थान हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा कि यदि किसी लोक सेवक पर लगाए गए आरोप उसके आधिकारिक कर्तव्यों से जुड़े नहीं हैं और उनमें व्यक्तिगत कदाचार या रिश्वतखोरी शामिल है, तो भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 17A के तहत किसी प्रकार का संरक्षण उसे नहीं दिया जाएगा।
न्यायमूर्ति राजेंद्र प्रकाश सोनी की अध्यक्षता में अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की यह धारा केवल उन मामलों में लागू होती है जो सीधे तौर पर किसी लोक सेवक के आधिकारिक कार्यों से संबंधित हों।
RAJASTHAN HC: मामले का आधार
यह याचिका उस प्राथमिकी को निरस्त करने के लिए दायर की गई थी, जिसमें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 और भारतीय दंड संहिता की धाराओं 201, 384, और 120B के तहत आरोप लगाए गए थे। मामला एक प्रतिस्पर्धी परीक्षा में धोखाधड़ी के आरोप से संबंधित है, जिसमें कुछ लोगों पर यह आरोप था कि उन्होंने परीक्षा प्रक्रिया में अनियमितताओं को अंजाम दिया।
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इस प्रक्रिया में आरोपों के अनुसार, जांच एजेंसी ने सुरेंद्र धारिवाल को गिरफ्तार किया और उसके पास से नकदी व अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जब्त किए गए। इसके बाद, उस पर पांच लाख रुपये की रिश्वत मांगी गई थी, और जमानत पर रिहा होने के बाद उसे पुलिस थाने में अपने सामान की वापसी के लिए फिर से रिश्वत देने के लिए कहा गया।
RAJASTHAN HC: अदालत की टिप्पणियाँ और विश्लेषण
इस मामले में, अदालत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A के प्रावधानों की व्याख्या करते हुए कहा कि यह धारा उन अपराधों के मामले में संरक्षण प्रदान करती है, जो लोक सेवक द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए निर्णयों या कार्यों से जुड़े हों। न्यायमूर्ति सोनी ने कहा कि यदि किसी लोक सेवक द्वारा किए गए कथित अपराधों में निजी लाभ या रिश्वतखोरी का मामला है और वह उसके आधिकारिक कार्यक्षेत्र में नहीं आता है, तो धारा 17A के अंतर्गत संरक्षण का लाभ उसे नहीं मिल सकता।
अदालत ने यह भी कहा कि यदि कोई लोक सेवक अपने आधिकारिक कार्यों के दायरे से बाहर जाकर किसी प्रकार का लाभ प्राप्त करता है या अनुचित साधनों का उपयोग करता है, तो उसके खिलाफ जांच करने या गिरफ्तारी के लिए धारा 17A के तहत किसी प्रकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार, अदालत ने याचिकाकर्ता के इस तर्क को खारिज कर दिया कि सक्षम प्राधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना की गई कार्रवाई अवैध है।
RAJASTHAN HC: प्रकरण का घटनाक्रम और साक्ष्य
मामले के दौरान, याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता विकास बालिया ने तर्क दिया कि एएसआई और उसकी टीम द्वारा सुरेंद्र धारिवाल से वसूली गई नकदी और अन्य वस्तुओं को बरामद करने के बाद, जब उसे थाने में बुलाया गया तो उससे फिर से रिश्वत मांगी गई। धारिवाल ने पेन ड्राइव वॉइस रिकॉर्डर पर बातचीत को रिकॉर्ड किया और बाद में यह सबूत एक एसीबी कॉन्स्टेबल को सौंप दिया, जिसके आधार पर रिश्वत और कदाचार के आरोपों में एफआईआर दर्ज की गई।
अदालत ने मामले की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए टिप्पणी की कि यदि कोई लोक सेवक रिश्वत की मांग करता है, तो उसे पकड़ने के लिए धारा 17A के तहत किसी प्रकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। यह भी कहा गया कि यदि ऐसी कार्रवाई में कोई संलिप्तता पाई जाती है, तो इस प्रकार के अपराध को “स्वतः अपराध” के रूप में माना जाएगा और इसके लिए विशेष जांच की आवश्यकता होगी।
अदालत ने कहा कि रिश्वतखोरी के मामले में कोई भी लोक सेवक, जो आधिकारिक कार्यों से हटकर निजी कदाचार करता है, कानून के संरक्षण के योग्य नहीं है। अदालत ने इस मामले में सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति के बिना दर्ज की गई प्राथमिकी को रद्द करने के लिए दिए गए याचिका को अस्वीकार कर दिया।
RAJASTHAN HC: महत्वपूर्ण कानूनी दृष्टिकोण
इस निर्णय से एक महत्वपूर्ण कानूनी दृष्टिकोण उभरकर सामने आता है, जो यह स्पष्ट करता है कि कानून का उद्देश्य सिर्फ उन लोक सेवकों को संरक्षण देना नहीं है जो अपने कार्यक्षेत्र में ईमानदारी से कार्य कर रहे हैं, बल्कि यह उन मामलों में भी कार्रवाई का मार्ग प्रशस्त करता है, जहां लोक सेवक का कदाचार उसके आधिकारिक कर्तव्यों से हटकर हो।
इस प्रकार, अदालत ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A की सीमाओं को स्पष्ट किया और यह सुनिश्चित किया कि इस तरह के प्रावधानों का दुरुपयोग रोकने के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश दिए जाएं।