इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शेयर बाजार में निवेश से संबंधित एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि शेयर बाजार में निवेश के जोखिम को समझना आवश्यक है और किसी शेयर ब्रोकर के खिलाफ निवेश की राशि की वसूली के लिए एफआईआर दर्ज कराना अनुचित है। अदालत ने एक लाइसेंस प्राप्त शेयर ब्रोकर और शेयर एवं सिक्योरिटी कंपनी के निदेशक/स्वामी के खिलाफ दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। इस मामले में आवेदक के खिलाफ आईपीसी की धारा 420 और 409 के तहत एक इक्विटी शेयर लेनदेन विवाद को लेकर एफआईआर दर्ज की गई थी।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय: मामले की पृष्ठभूमि
इस मामले में आवेदक एक लाइसेंस प्राप्त शेयर ब्रोकर था और उसने प्रतिवादी के लिए शेयर बाजार में निवेश किया था। प्रतिवादी ने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि शेयर ब्रोकर ने उसके निवेश को धोखे से हड़प लिया है और इस कारण उसे नुकसान हुआ है। इसके बाद, प्रतिवादी ने आवेदक के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर दिया और निवेश की वसूली के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू कर दी।
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आवेदक ने अपने बचाव में कहा कि उसने प्रतिवादी को पहले ही बता दिया था कि शेयर बाजार में निवेश करने के लिए जोखिम लेना पड़ता है और इसमें लाभ और हानि दोनों की संभावना होती है। इसके बावजूद, प्रतिवादी ने शेयर बाजार में निवेश किया। आवेदक ने यह भी कहा कि यह मामला एक व्यावसायिक विवाद है और इसे आपराधिक कार्यवाही के तहत नहीं लिया जा सकता। इसके लिए, उन्होंने अदालत में सीआरपीसी की धारा 482 के तहत आवेदन दाखिल कर एफआईआर और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय: अदालत का फैसला
न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता की एकल पीठ ने अपने फैसले में कहा, “शेयर बाजार में निवेश करने वाले व्यक्ति को इसके जोखिमों की जानकारी होनी चाहिए। जब कोई व्यक्ति अपनी आंखें खुली रखकर निवेश करता है और जोखिम से अवगत रहता है, तो उसे बाद में निवेश की वसूली के लिए आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का अधिकार नहीं है। यह केवल लेखा विवाद का मामला है और इसे सिविल अदालत में ही हल किया जाना चाहिए।”
अदालत ने कहा कि आपराधिक मामले का उद्देश्य अपराधियों को दंडित करना है, न कि वित्तीय विवादों को सुलझाना। वित्तीय विवादों के लिए सिविल अदालतें और विशेष अधिनियम होते हैं, जैसे कि सेबी अधिनियम।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय: सेबी अधिनियम का उल्लेख
अदालत ने अपने फैसले में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) अधिनियम, 1992 का उल्लेख करते हुए कहा कि इस मामले में सेबी अधिनियम लागू होता है, न कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धाराएं। सेबी अधिनियम की धारा 15-एफ और 26 के अनुसार, ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती। केवल सेबी ही इस तरह के विवादों को सुलझाने के लिए अधिकृत है और इसके लिए विशेष प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए।
उच्च न्यायालय ने ललित चतुर्वेदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि व्यावसायिक लेनदेन से उत्पन्न वित्तीय विवादों में आपराधिक कार्यवाही का सहारा लेना अनुचित है, जब तक कि यह साबित न हो कि निवेश शुरू करने के समय कोई धोखाधड़ी या गलत प्रस्तुति की गई हो। अदालत ने कहा कि इस मामले में कोई धोखाधड़ी का प्रमाण नहीं है और यह विवाद केवल वित्तीय लेनदेन का है, जिसे सिविल न्यायालय के माध्यम से सुलझाया जाना चाहिए।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय: अदालत की टिप्पणियां
अदालत ने कहा, “कोई भी व्यक्ति आईपीसी की धारा 409 और धारा 420 के तहत एक ही आरोपों के आधार पर दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि दोनों अपराध एक-दूसरे के विपरीत हैं और अलग-अलग क्षेत्र में कार्य करते हैं। यह धाराएं एक साथ नहीं लगाई जा सकतीं, क्योंकि यह स्वभाव से ही विरोधाभासी हैं।”
अदालत ने कहा कि इस प्रकार की एफआईआर, जिसमें निवेश की राशि की वसूली की मांग की गई है, टिकाऊ नहीं है और यह आत्मविरोधी है। इस प्रकार के विवाद को सिविल प्रकृति का मानते हुए, अधिकतम इसे सेबी अधिनियम की धारा 15-एफ के तहत देखा जा सकता है। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि सेबी अधिनियम एक विशेष अधिनियम है, जो आईपीसी या सीआरपीसी जैसे सामान्य कानूनों पर प्रभावी होता है।
अदालत ने अपने फैसले में कहा, “एक बार जब कोई विशेष अधिनियम क्षेत्र को नियंत्रित करता है, तो सामान्य कानून के प्रावधान लागू नहीं होंगे। केवल विशेष कानून के प्रावधानों के अनुसार ही अभियोजन शुरू किया जा सकता है और सेबी अधिनियम की धारा 26 के प्रावधानों का पालन करते हुए ही शिकायत दर्ज की जा सकती है।”
इलाहाबाद उच्च न्यायालय: मामले का शीर्षक और उपस्थिति
मामले का शीर्षक: जितेंद्र कुमार केशवानी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
उपस्थिति:
आवेदक की ओर से: अधिवक्ता दीपक कुमार कुलश्रेष्ठ और हितेश पचौरी
प्रतिवादी की ओर से: अधिवक्ता मनीष त्रिवेदी; एजीए राजीव कुमार सिंह
अदालत ने इस मामले में आवेदक का आवेदन स्वीकार कर लिया और आपराधिक कार्यवाही को रद्द करते हुए कहा कि इस तरह के विवादों का निपटारा आपराधिक अदालतों में नहीं, बल्कि सिविल अदालतों या सेबी जैसे नियामक संस्थाओं के माध्यम से होना चाहिए।
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